फिल्म रिव्यु : बैंगिस्तान
फिल्म रिव्यु : बैंगिस्तान
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आतंकवाद इस समय एक गंभीर समस्या है, जो धर्म से निर्देशित हो रही है. आतंकवाद के रंग अलग हो सकते हैं, लेकिन आतंकवाद की सारी धार्मिक लड़ाइयों में मौत तो आम इंसान की ही होती है. सभी मजहबों में वैसे बेहतर इंसान बनने की सीख दी जाती है. मतलबपरस्त इस सीख को अपनी सुविधा से खुदबखुद बदल देते हैं. उनकी व्याख्या की चपेट में इंसान फंसते हैं और आतंकवाद का कारोबार चलता रहता है. निर्देशक करण अंशुमान ने एक काल्पनिक देश ‘बैंगिस्तान’ की कल्पना की है. इस काल्पनिक देश में वही सब हो रहा है, जो हिंदुस्तान,पाकिस्तान और अफगानिस्तान में हमेशा से होता रहता है.

कह सकते हैं कि ‘बैंगिस्तान’ सच्ची घटनाओं, प्रसंगों और विचारों पर आधारित काल्पनिक कहानी है. समस्या यह है कि हम जरूरी मुद्दों पर भी सीधी बातें नहीं कर सकते है. कहीं से कोई आवाज उठती है और समाज के नैतिक पहरेदार उस फिल्म, किताब और विचार पर पाबंदी लगाने की बातें करने लगते हैं और विरोध करने लगते है. करण अंशुमान ने ‘बैंगिस्तान’ में सच्ची घटना को रचा है. उन्होंने नॉर्थ और साउथ बैंगिस्तान के धर्मावलंबियों को बांट कर एक ही तीर से निशाना साधा है. नॉर्थ के ईमाम और साउथ के शंकराचार्य तो सभी मामलों में स्काइप के जरिए खुद तो एक-दूसरे के संपर्क में रहते हैं, लेकिन उनके इलाके के कट्टरपंथियों की सोच कुछ और है.

वे अपना प्रभाव और डर बढ़ाने के लिए साजिशें रचते रहते हैं. महज संयोग नहीं है कि दोनों हमशक्ल हैं. मजहब कोई भी हो आतंकवादी का चेहरा एक ही होता है. बहुत खूब करण. गौर करें तो करण ने ‘मां का दल’ और ‘अल काम तमाम’ संगठनों के माध्यम से अतिवादी विचारों के हिमायतियों के कार्य और व्यवहार को सटीक तरीके से पेश करने का प्रयास किया है. प्रहसन की एक खासियत होती है कि दर्शक मूल स्रोतों को समझ रहे होते हैं. यहां भी स्पष्ट है कि उनकी मंशा क्या है? तमाम आधुनिकता के बावजूद वे कहीं अटक गए हैं. दोनों अपने नुमाइंदों को विश्व सर्वधर्म सम्मेलन में तबाही मचाने के लिए पॉलैंड में भेजते हैं. हफीज बिन अली(रितेश देशमुख) और प्रवीण चतुर्वेदी(पुलकित सम्राट) एक-दूसरे के मजहब को चोला धारण कर लेते हैं.

इस प्रक्रिया में वे एक-दूसरे के धर्म को करीब से समझते हैं. फिल्म में गीता और कुरान का जिक्र आता है. पता चलता है कि इस अभियान में दोनों मजहबों के प्रतिनिधि एक- दूसरे पक्ष के हमदर्द बन जाते हैं. करण प्रहसन के प्रयोग में एक स्तर पर जाकर उलझ से जाते हैं. यहां दोनों कलाकार अन्य किरदारों के साथ हावी हो जाते हैं. फिल्म थोड़ी कमजोर होने के साथ फंस सी जाती है. करण अंशुमान ने पहली कोशिश में ही आतंकवाद के प्रासंगिक मुद्दे को कॉमिकल और पॉलिटिकल तरीके से कहने की भरपूर कोशिश की है. वे पूरी तरह से सफल नहीं रहे हें, लेकिन उनके इस प्रयास की तारीफ होना चाहिए.

वे नई पीढ़ी के उन फिल्मकारों में हैं जो नए विषयों के साथ प्रयोग कर रहे हें. उन्हें रितेश देशमुख, पुलकित सम्राट और कुमुद मिश्रा का भरपूर साथ मिला है. रितेश तो अपने किरदार की मर्यादा में रहते हैं, लेकिन पुलकित प्रभाव बढ़ाने के लिए किए गए अतिरिक्त प्रयास में किरदार से बहक ही जाते हैं. संवाद में ही सही रितेश उनसे कह भी देते हैं, तुम तो बुरे एक्टर निकले. कुमुद मिश्रा ने अवश्यक अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह किया है. दोनों मजहबों के कट्टरपंथियों के डबल रोल में वे निर्देशक की सोच को साफ साफ रख सके हैं. फिल्म में कसावट नहीं है. करण ने चरित्र और स्थितियां तो रची हैं, पर सटीक चित्रण में कमी सी रह गई है. फिर भी फिल्म कुल मिलाकर एक एन्टरटेनिगं फिल्म है.

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