चित्रकार दोस्त ने भेंट स्वरूप एक तस्वीर दी। आवरण हटा कर देखा तो निहायत ख़ुशी हुई, तस्वीर भारत माता की थी। माँ-सी सुन्दर, भोली सूरत, अधरों पर मुस्कान, कंठ में सुशोभित ज़ेवरात, मस्तक को और ऊँचा करता हुआ मुकुट व हाथ में तिरंगा।
मैं लगातार उस तस्वीर को देखता रहा। तभी क्या देखता हूँ कि तस्वीर में से एक और औरत निकली। अधेड़ उम्र, अस्त-व्यस्त दशा, आँखों से छलक़ते आँसू। उसके शरीर पर काफी घाव थे। कुछ ताजे ज़ख़्म, कुछ घावों के निशान। मैंने पूछा, "तुम कौन हो?
बोली, "मैं तुम्हारी माँ हूँ, भारत-माँ!
मैंने हैरत से पूछा, "भारत-माँ? पर----- तुम्हारी यह दशा! चित्रकार ने तो कुछ और ही तस्वीर दिखाई थी! तुम्हारा मुकुट कहाँ है ? तुम्हारे ये बेतरतीब बिखरे केश, मुकुट विहीन मस्तक और फटे हुए वस्त्र ! नहीं, तुम भारत-माता नहीं हो सकती!" मैंने अविश्वास प्रकट किया।
कहने लगी, " तुम ठीक कहते हो। चित्रकार की कल्पना भी अनुचित नहीं है। पहले तो मैं बंदी थी पर बंधन से तो छूट गई। अब विडंबना कि घाव ग्रस्त हूँ। कुछ घाव ग़ैरों ने दिए तो कुछ अपने ही बच्चों ने। ---- और रही बात मेरे मुकुट और ज़ेवरात की, वो कुछ विदेशियों ने लूट लिए और कुछ कपूतों ने बेच खाए। इसीलिए रो रही हूँ। सैकड़ों वर्षों से रो रही हूँ। पहले गैरों व बंधन पर रोती थी। अब अपनों की आज़ादी की दुर्दशा पर।
उसकी बात सच लगने लगी। तस्वीर का दूसरा रुख देख, मेरी ख़ुशी धीरे-धीरे खत्म होने लगी और आँख का पानी बन छलक उठी।