सावन में जरूर सुने श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की कथा
सावन में जरूर सुने श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की कथा
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सावन का महीना विशेष महीना कहा जाता है. इस महीने में शिव का पूजन करने से बड़े बड़े लाभ होते हैं. ऐसे में आज सावन के महीने में हम आपको बताने जा रहे हैं श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की कथा. जी दरअसल आप जानते ही होंगे श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिले में कृष्णा नदी के तट पर पवित्र श्री शैल पर्वत पर स्थित है. वहीं इसे दक्षिण का कैलाश भी कहते हैं. अब आइए आज जानते हैं श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की कथा.

कथा - शिव पुराण में कोटिरूद्र संहिता के 15वें अध्‍याय में यह कहानी उल्‍लेखित है. एक बार भगवान शिव और माता पार्वती ने तय किया कि वो अपने पुत्रों के लिए सही वधु का चयन करेगी. अब बहस हुई कि कौन पहले विवाह करेगा. भगवान शिव ने सुझाव दिया कि जो भी पूरी दुनिया का सबसे पहले चक्‍कर लगा लेगा, वहीं पहले विवाह करेगा. ऐसा सुनते ही कार्तिकेय जी ने पहले पृथ्वी की परिक्रमा करना शुरू कर दिया लेकिन गणेश जी मोटे होने के कारण और उनका वाहन चूहा होने के कारण वे इतनी जल्दी पृथ्वी की परिक्रमा कैसे करते. गणेश जी मोटे जरूर थे लेकिन उनमें बुद्धि थी. उन्होंने कुछ विचार किया और अपने माता-पिता से एक स्थान पर बैठने का आग्रह किया.फिर उन्होंने माता -पिता की सात बार परिक्रमा की. इस तरह माता-पिता की परिक्रमा करके पृथ्वी की परिक्रमा से मिलने वाले फल की प्राप्ति के अधिकारी बन गए. और उन्होंने शर्त जीत ली. उनकी इस युक्ति को देखकर माँ पार्वती और शिव जी बहुत प्रसन्न हुए. इस प्रकार गणेश जी का विवाह रिद्धि व सिद्धि के साथ करा दिया गया. बाद में जब कार्तिकेय जी पृथ्वी की परिक्रमा करके लौटे तो बहुत दुखी हुए क्योंकि गणेश जी का विवाह करा दिया गया था. कार्तिकेय जी ने माता-पिता के चरण छुए और वहां से चले गए. वे दुखी होकर क्रौन्च पर्वत पर चले गए. जब इस बात का पता माँ पार्वती और शिव जी को लगा तो उन्होंने नारद जी को कार्तिकेय को मनाने और घर वापस लाने के लिए भेजा. नारद जी क्रौन्च पर्वत पर पहुंचे और कार्तिकेय को मनाने का बहुत प्रयत्न किया. लेकिन कार्तिकेय जी नहीं माने और नारद जी निराश होकर माँ पार्वती और शिव जी के पास पहुंचे और सारा वृतांत कह सुनाया. ऐसा सुनकर माता दुखी हुईं और पुत्र स्नेह के कारण स्वयं शिव जी के साथ क्रौंच पर्वत पर पहुंची. माता- पिता के आगमन का पता चलते ही कार्तिकेय जी पहले से ही 12 कोस दूर यानी कि 36 किलो मीटर दूर चले गए थे. तभी शिव जी वहां ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हो गए. तब से ही वह स्थान मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग नाम से प्रसिद्ध हुआ. ऐसा कहा जाता है कि पुत्र स्नेह में माता पार्वती प्रत्येक पूर्णिमा और भगवान शिव प्रत्येक अमावस्या को यहाँ आते हैं और ऐसा भी कहा जाता है कि यही एक मात्र ऐसा स्थान है जहाँ माता सती की ग्रीवा गिरी थी . इसीलिए इसे भ्रामराम्बा शक्तिपीठ भी कहा जाता है. यह शैल शक्तिपीठ के नाम से भी जाना जाता है. मंदिर में महालक्षी के रूप में अष्टभुजा मूर्ति स्थापित है.

एक अन्य कथा - यह कथा मल्लिकार्जुन की दीवारों पर लिखी गई है. क्रौंच पर्वत के निकट ही किसी चन्द्रगुप्त नामक राजा की राजधानी थी. राजा की बेटी चंद्रावती किसी संकट में फंस गयी थी. समस्या के निवारण हेतु वह कन्या राजमहल छोड़कर पर्वत पर चली गयी थी. वह पर्वत पर रहकर अपना जीवन – यापन करने लगी. उसके पास एक अत्यंत सुन्दर काले रंग की गाय थी. वह कन्या अपनी गाय को अत्यधिक प्रेम करती थी और सेवा भी करती थी. लेकिन प्रतिदिन कोई न कोई व्यक्ति उस गाय का दूध निकाल लेता था. उस कन्या को समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा कौन कर रहा है. एक दिन कन्या ने स्वयं अपनी आँखों से उस श्यामा गाय का दूध दुहते हुए किसी चोर को देखा. उस कन्या को अत्यधिक क्रोध आया और गुस्से से वे चोर के समीप पहुंची. लेकिन वहां कोई चोर नहीं था. वे आश्चर्यचकित हो उठी क्योंकि वहां उनको एक शिवलिंग के दर्शन हुए. शिवलिंग के दर्शन करने से वे बहुत प्रसन्न हुईं और उन्होंने उसी स्थान पर एक मंदिर बनवाया. वही शिवलिंग मंदिर आगे चलकर मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग नाम से प्रसिद्ध हुआ.

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