महर्षि वेद व्यास का बचपन ऐसा था
महर्षि वेद व्यास का बचपन ऐसा था
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जिस वक्त कृष्ण द्वैपायन का जन्म हुआ, पाराशर ठीक होकर जा चुके थे। जब बच्चे को थोड़ी समझ आई और उसने बोलना शुरू किया तो अपनी माता से पूछा, ‘मेरे पिता कौन हैं?’ मां ने पिता के बारे में शानदार कहानी सुनाई और बताया कि उसके पिता कितने महान और अद्भुत इंसान हैं। जब से मत्स्यगंधी ने बच्चे को दूध पिलाना शुरू किया था, तभी से वह चाहती थी कि वह अपने पिता की बुद्धि और ज्ञान से प्रभावित हो, उस मछुआरे समाज से नहीं, जिसमें वह रहता है। वो मां से बार-बार पूछते, ‘पिताजी हमारे साथ क्यों नहीं रहते?’ और मां हर बार उसे समझाती कि उसके पिता महान कार्यों में लगे हैं और इसीलिए वे एक स्थान पर नहीं रुक सकते। देश में हर जगह उनकी पूछ है इसलिए उन्हें बहुत ज्यादा यात्रा करनी पड़ती है। ज्ञान के प्रसार के लिए उन्हें दुनिया भर में जाना पड़ता है इसलिए वह हमारे साथ नहीं रह सकते।

कृष्ण द्वैपायन बार-बार पूछते, ‘अगर वह हमारे साथ नहीं रह सकते तो क्यों नहीं हम उनके पास चले जाते?’ मां कहती,  ‘वह हमें अपने साथ नहीं ले जा सकते क्योंकि यात्रा में होने के कारण उन्हें अलग-अलग तरह की परिस्थितियों में रहना पड़ता है।’ पिता के प्रति जबर्दस्त विस्मय के भाव के साथ बच्चा बड़ा हुआ क्योंकि उसने अपने पिता को कभी देखा नहीं था। अब वह अपने पिता से मिलना चाहता था। उसका एकमात्र लक्ष्य यही था। मछुआरों के गांव में वह दूसरे बच्चों को बताता, ‘मेरे पिता इन तारों, चंद्रमा और सूर्य को जानते हैं। ऐसा कुछ भी नहीं, जिसका ज्ञान उन्हें न हो।’ वो जो भी कहते, वह बहुत ज्यादा नहीं था क्योंकि पाराशर काफी हद तक इतने ही ज्ञानी थे।

जब द्वैपायन छह साल के हुए, तो पाराशर मछुआरों की बस्ती में फिर आए। बच्चे का तो जैसे सपना साकार हो गया। छह साल के बच्चे ने पलक नहीं झपकाई। वह अपने पिता के साथ बैठना चाहता था क्योंकि उसके पिता सूर्य, चंद्र, तारों सबके बारे में जानते थे। वह हर उस चीज को जान लेना चाहता था जो उसके पिता जानते थे। उसने उनसे सवाल पर सवाल पूछे। पाराशर बच्चे की क्षमताओं को देखकर हैरान रह गए।

पिता ने जो भी बोला, एक स्पंज की तरह उस बच्चे ने सब कुछ सोख लिया। सीखने और समझने की उसकी क्षमताएं जबर्दस्त थीं। उसके सामने एक बार जो बोल दिया गया, वह उसे याद हो जाता था। उसके लिए उस बात को जीवन में कभी भी दोहराने की आवश्यकता नहीं हुई। पिता ने बच्चे की इस असाधारण क्षमता को महसूस किया और जाना कि वह शानदार शिष्य है। जब जाने का वक्त आया तो द्वैपायन ने कहा, ‘मैं आपके साथ चलना चाहता हूं।’ पाराशर ने कहा, ‘तुम असाधारण बालक हो, लेकिन तुम अभी महज छह साल के हो। तुम मेरे साथ यात्रा नहीं कर सकोगे।’ द्वैपायन ने पूछा, ‘कृपया बताएं ऐसा क्या है जो मैं आज से दो साल बाद कर सकता हूं और आज नहीं।’ पाराशर ने बच्चे को देखा, लेकिन वह उसके सवाल का जवाब नहीं दे सके क्योंकि वह बौद्धिक रूप से वो सब काम करने में सक्षम था जो 30 साल के एक वयस्क के लिए भी मुश्किल होता है।

पाराशर बोले, ‘देखो, तुम मेरे पुत्र के तौर पर मेरे साथ देश भ्रमण नहीं कर सकते। केवल मेरे शिष्य ही मेरे साथ जा सकते हैं।’ द्वैपायन ने कहा, ‘तो मुझे अपना शिष्य बना लीजिए।’ पाराशर ने फिर कहा, ‘तुम अभी बच्चे हो। तुम्हारी उम्र महज छह साल है।

अपनी मां के साथ थोड़ा और समय बिताओ।’ द्वैपायन बोले, ‘नहीं, मैं चलना चाहता हूं। आप अभी मुझे अपना शिष्य बना लीजिए और मैं आपके साथ चलूंगा।’ पाराशर के सामने कोई चारा नहीं था। छह साल के बच्चे को उन्होंने ब्रह्मचर्य में प्रवेश कराया, उसे अपना शिष्य बनाया और फिर मुंडे हुए सिर और भिक्षा के कटोरे के साथ वह बच्चा अपने पिता या कहें कि गुरु के पीछे चल दिया।

उसने अपनी असाधारण बौद्धिक क्षमताओं का प्रदर्शन जारी रखा। जो बात उसे एक बार बता दी जाती, उसे दोबारा बताने की कभी आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी। धीरे-धीरे द्वैपायन का ज्ञान इतना बढ़ गया कि जब पाराशर उन्हें कोई बात बताते, तो उस बात से जुड़ी दस बातें द्वैपायन पहले से ही जानते थे। पिता से चीजों को ग्रहण करने की उनकी क्षमता जबर्दस्त हो गई क्योंकि वह अपने गुरु के प्रति एकाग्रचित्त थे। कम उम्र में ही द्वैपायन महाज्ञानी बन गए। जब उनकी उम्र 16 साल थी, उनकी बराबरी करने वाला कहीं कोई नहीं था।

वेदों में अंतिम वेद

एक और महान संत थे जिनका नाम था महाथरवन। चार वेदों में सबसे अंतिम है अथर्व वेद। दुनिया में अपने कामों को पूरा करने के लिए ऊर्जाओं को कुशलतापूर्वक इस्तेमाल करने का विज्ञान अथर्व वेद के नाम से जाना जाता है। इस विज्ञान को तंत्र – मंत्र विद्या भी कहा जाता है। वैदिक परंपराओं ने शुरुआत में इसे खारिज कर दिया था और इसे वेदों में शामिल नहीं किया गया था। ब्राह्मणों के एक बड़े समाज द्वारा अथर्व वेद को खारिज करने की वजह से तीन ही वेद थे। बाद में महाथरवन ने अथर्व वेद को वेदों में शामिल कराने और उतना ही महत्व दिलाने के लिए पहले पाराशर और फिर कृष्ण द्वैपायन के साथ मिलकर काम किया। उनकी कोशिशों की वजह से ही अब वेदों की संख्या चार है। कुछ समय बाद पाराशर बूढ़े हो गए और उन्होंने धर्म के प्रचार-प्रसार और स्थापना के लिए यात्राएं करनी बंद कर दी, लेकिन कृष्ण द्वैपायन ने जिन्हें बाद में वेद व्यास के नाम से जाना गया, विश्व में धर्म के प्रचार प्रसार का जिम्मा संभाल लिया। उस समय उनकी आयु 16 साल थी। वह वास्तव में अतुलनीय थे।

समाज के इन चारों वर्णों के लिए धर्म की स्थापना की गई। धर्म यह तय करता था कि कोई शूद्र कैसे रहेगा, वैश्य कैसे रहेगा, क्षत्रिय को कैसे रहना चाहिए और ब्राह्मण को कैसे रहना चाहिए। हर किसी की जिम्मेदारी और उसके काम की प्रकृति के अनुसार एक खास धर्म की स्थापना की गई।

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