सावन माह में यहाँ जानिए महाकालेश्वर की पवित्र कथा
सावन माह में यहाँ जानिए महाकालेश्वर की पवित्र कथा
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सावन का महीना चल रहा है और यह महीना शिव जी का प्रिय महीना माना जाता है. ऐसे में इस महीने में शिव जी के बारे में सुनने या पढ़ने से बड़ा लाभ होता है. अब आज हम आपको बताने जा रहे हैं महाकालेश्वर की बहुत ही लोकप्रिय और पवित्र कथा. आइए बताते हैं कबसे भगवान महाकाल उज्जैन में विराजित हैं.


कथा- उज्जयिनी में राजा चंद्रसेन का राज था. वह भगवान शिव का परम भक्त था. शिवगणों में मुख्य मणिभद्र नामक गण उसका मित्र था. एक बार मणिभद्र ने राजा चंद्रसेन को एक अत्यंत तेजोमय 'चिंतामणि' प्रदान की. चंद्रसेन ने इसे गले में धारण किया तो उसका प्रभामंडल तो जगमगा ही उठा, साथ ही दूरस्थ देशों में उसकी यश-कीर्ति बढ़ने लगी. उस 'मणि' को प्राप्त करने के लिए दूसरे राजाओं ने प्रयास आरंभ कर दिए. कुछ ने प्रत्यक्षतः माँग की, कुछ ने विनती की. वह राजा की अत्यंत प्रिय वस्तु थी, अतः राजा ने वह मणि किसी को नहीं दी. अंततः उन पर मणि आकांक्षी राजाओं ने आक्रमण कर दिया.

शिवभक्त चंद्रसेन भगवान महाकाल की शरण में जाकर ध्यानमग्न हो गया. जब चंद्रसेन समाधिस्थ था तब वहाँ कोई गोपी अपने छोटे बालक को साथ लेकर दर्शन हेतु आई. बालक की उम्र थी पांच वर्ष और गोपी विधवा थी. राजा चंद्रसेन को ध्यानमग्न देखकर बालक भी शिव की पूजा हेतु प्रेरित हुआ. वह कहीं से एक पाषाण ले आया और अपने घर के एकांत स्थल में बैठकर भक्तिभाव से शिवलिंग की पूजा करने लगा. कुछ देर पश्चात उसकी माता ने भोजन के लिए उसे बुलाया किन्तु वह नहीं आया. फिर बुलाया, वह फिर नहीं आया. माता स्वयं बुलाने आई तो उसने देखा बालक ध्यानमग्न बैठा है और उसकी आवाज सुन नहीं रहा है. तब क्रुद्ध हो माता ने उस बालक को पीटना शुरू कर दिया और समस्त पूजन-सामग्री उठाकर फेंक दी. ध्यान से मुक्त होकर बालक चेतना में आया तो उसे अपनी पूजा को नष्ट देखकर बहुत दुःख हुआ. अचानक उसकी व्यथा की गहराई से चमत्कार हुआ.

भगवान शिव की कृपा से वहाँ एक सुंदर मंदिर निर्मित हो गया. मंदिर के मध्य में दिव्य शिवलिंग विराजमान था एवं बालक द्वारा सज्जित पूजा यथावत थी. उसकी माता की तंद्रा भंग हुई तो वह भी आश्चर्यचकित हो गई. राजा चंद्रसेन को जब शिवजी की अनन्य कृपा से घटित इस घटना की जानकारी मिली तो वह भी उस शिवभक्त बालक से मिलने पहुँचा. अन्य राजा जो मणि हेतु युद्ध पर उतारू थे, वे भी पहुँचे. सभी ने राजा चंद्रसेन से अपने अपराध की क्षमा माँगी और सब मिलकर भगवान महाकाल का पूजन-अर्चन करने लगे. तभी वहाँ रामभक्त श्री हनुमानजी अवतरित हुए और उन्होंने गोप-बालक को गोद में बैठाकर सभी राजाओं और उपस्थित जनसमुदाय को संबोधित किया.


ऋते शिवं नान्यतमा गतिरस्ति शरीरिणाम्‌॥
एवं गोप सुतो दिष्टया शिवपूजां विलोक्य च॥
अमन्त्रेणापि सम्पूज्य शिवं शिवम्‌ वाप्तवान्‌.
एष भक्तवरः शम्भोर्गोपानां कीर्तिवर्द्धनः
इह भुक्तवा खिलान्‌ भोगानन्ते मोक्षमवाप्स्यति॥
अस्य वंशेऽष्टमभावी नंदो नाम महायशाः.
प्राप्स्यते तस्यस पुत्रत्वं कृष्णो नारायणः स्वयम्‌॥ 


इसका अर्थ है - 'शिव के अतिरिक्त प्राणियों की कोई गति नहीं है. इस गोप बालक ने अन्यत्र शिव पूजा को मात्र देखकर ही, बिना किसी मंत्र अथवा विधि-विधान के शिव आराधना कर शिवत्व-सर्वविध, मंगल को प्राप्त किया है. यह शिव का परम श्रेष्ठ भक्त समस्त गोपजनों की कीर्ति बढ़ाने वाला है. इस लोक में यह अखिल अनंत सुखों को प्राप्त करेगा व मृत्योपरांत मोक्ष को प्राप्त होगा. इसी के वंश का आठवाँ पुरुष महायशस्वी 'नंद' होगा जिसके पुत्र के रूप में स्वयं नारायण 'कृष्ण' नाम से प्रतिष्ठित होंगे.' कहते हैं भगवान महाकाल तब ही से उज्जयिनी में स्वयं विराजमान है और प्राचीन ग्रंथों में महाकाल की कृपा का वर्णन आप सभी ने पढ़ा ही होगा.

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