मैगी : आधुनिकता की आड़ में बच्चों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़
मैगी : आधुनिकता की आड़ में बच्चों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़
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मैगी आधुनिक जीवनशैली की एक प्रतीक बन गई थी। इसके प्रत्येक पहलू में आधुनिकता की छाप थी। पहली बात यह कि इसके निर्माताओं की नजर में धन कमाना एकमात्र उद्देश्य है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि इससे समाज खासतौर पर बच्चों के स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है। इसका विज्ञापन करने वालों की मानसिकता भी इससे ऊपर नहीं रही। केवल धन मिलता रहे, फिर चाहे जिस वस्तु का विज्ञापन करा लो। इन लोगों को समाज के कारण ही लोकप्रियता मिली, जिसके चलते इन्हें विज्ञापन के लिये उपयुक्त माना गया, लेकिन उसी समाज के प्रति इनका दायित्वबोध क्या था। अमिताभ बच्चन हो, या माधुरी दीक्षित अथवा कोई और, आज इन लोगों का कहना है कि उन्होंने नेस्ले के भरोसे पर विज्ञापन किया था। तकनीकी रूप से ये बातें इनका बचाव कर सकती है। लेकिन नैतिकता के पक्ष पर इनका बचाव नहीं हो सकता। हम मान सकते हैं कि अमिताभ और माधुरी का कहना सच हो, लेकिन विज्ञापन करते समय कम्पनी के विश्वास पर नहीं वरन रकम पर ध्यान दिया जाता है। अन्यथा जिस बात की किसी को जानकारी न हो, जिस विषय का वह विशेषज्ञ न हो, उसका विज्ञापन वह कैसे कर सकता है।

अमिताभ और माधुरी ने कभी 'खाद्य-विज्ञान' का अध्ययन नहीं किया होगा। ऐसे में ये किसी खाद्य सामग्री के विज्ञापन को कैसे कर सकते हैं। लेकिन फिर भी ऐसा होता है। जिस विषय से कोई लेना देना नहीं, उसके विज्ञापन के लिये भी नामी चेहरे फौरन तत्पर हो जाते हैं। समाज हित पर निजी हित भारी होने के कारण ही ऐसा होता है। बहुत संभव था कि इतने नामी चेहरे मैगी का विज्ञापन न करते तो इसे इतनी लोकप्रियता ना मिलती। तब किसी ने इसमें प्रयुक्त होने वाली सामग्री पर विचार नहीं किया। विवाद की स्थिति में कानूनी शर्त लगाकर विज्ञापन का एग्रीमेन्ट किया, तो उसमें भी निजी हित की ही भावना थी, मतलब विज्ञापन की रकम वह खुद लेंगे, मुकदमा होगा तो कंपनी लड़ेगी। बचाव की यह दलील भी भ्रामक है। अब पता चल रहा है कि मैगी बनाने वाली कंपनी नेस्ले पर खाद्य सुरक्षा मानकों की अनदेखी का आरोप लगाया गया है। यहां खाद्य विभाग के जिम्मेदार अधिकारी भी आरोप के घेरे में हैं। इतने वर्षो से मैगी की धूम थी, लेकिन एक भी अधिकारी ने इसके खाद्य मानकों पर ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी। क्या माना जाए कि इस स्तर पर भी धन का प्रभाव नहीं रहा होगा।

मैगी के नमूनों में इतने वर्ष बाद खुलासा हुआ कि मोनोसोडियम ब्लूटामेट और सीसे की मात्रा तय सीमा से 17 गुना ज्यादा थी। इस मामले में कौन कितना दोषी है, यह तो जांच के बाद पता चलेगा। मामला अब न्यायपालिका में है। लेकिन यह तो मानना पड़ेगा कि किसी भी स्तर पर समाज के महत्वपूर्ण लोगों ने अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं किया। इसके विज्ञापन की शुरुआत बस दो मिनट से हुई थी। मतलब इसे मात्र दो मिनट में पकाकर बच्चों के सामने परोसा जा सकता है। आधुनिक माताएं भी खुश, बच्चे भी खुश। इस खुशी में स्वास्थ्य की बात पीछे छूट गयी। मैगी पकाना और खाना आधुनिकता का हिस्सा बन गई। बड़े-बुजुर्ग भी स्वाद आजमाने लगे। चना, चबैना, सत्तू के फायदे निर्विवाद हैं, लेकिन ये पिछड़ेपन की निशानी हो गए। हजारों करोड़ की सम्पत्ति के मालिक फिल्म व खेल जगत के लोकप्रिय चेहरों में क्या एक बार भी यह विचार नहीं आया कि वह अपनी तरफ से इन खाद्य पदार्थो के सेवन की बच्चों को प्रेरणा न दें। वह मैगी या किसी तेल को अपने जीवन की सफलता का श्रेय दे सकते हैं, लेकिन बच्चों को उचित खान-पान की सही शिक्षा नहीं दे सकते।

कितने क्रिकेट खिलाड़ियों पर आरोप लगता रहा है कि वह खेल से ज्यादा विज्ञापनों पर ध्यान देते हैं। जो समय उन्हें अभ्यास में लगाना चाहिए, वह विज्ञापन में लगा देते हैं। फिर वही बात, विज्ञापन भी उन वस्तुओं के, जिनके बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं होती। खासतौर पर खाद्य पदार्थो के बारे में तो कोई विशेषज्ञ ही बता सकता है। लेकिन उसके लिये भी फिल्म और क्रिकेट के सितारे तैयार रहते हैं। इनकी एक भी बात तर्कसंगत नहीं होती। साफ लगता है कि पूरी उछल-कूद केवल पैसों के लिए की जा रही है। इनके विज्ञापनों पर विश्वास करें तो मानना पड़ेगा कि फास्ट फूड सम्पूर्ण पोषण है। लेकिन चिकित्सा विज्ञान इससे सहमत नहीं। इसीलिए धनी परिवार के बच्चे भी कुपोषण के शिकार होते हैं।

विज्ञापनों का एक आपत्तिजनक पहलू यह भी है कि अधिकांश में नारी को गलत रूप में पेश किया जाता है। यह भी आधुनिकता का हिस्सा बन गया है। प्रगतिशील महिलाओं को कभी इन बातों के खिलाफ आवाज उठाते नहीं देखा गया। नारी के लिये कई बार गलत शब्द व चित्रण का प्रयोग किया जाता है। मैगी मामला निश्चित ही आंख खोलने वाला साबित हो सकता है। जीवन के लिये धन आवश्यक है। लेकिन इसे अधर्म अर्थात असामाजिक रास्ते से चलकर प्राप्त करने का प्रयास नहीं होना चाहिए। लाभ को शुभ होना चाहिए। जिससे समाज को नुकसान हो, उन वस्तुओं का उत्पादन न किया जाए। जिन वस्तुओं की प्रमाणिक जानकारी न हो, उसका विज्ञापन न किया जाए। वहीं यह अभिभावकों की जिम्मेदारी है कि वह अपने बच्चों को उचित खान-पान के लिए प्रेरित करें।

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