काठमांडू : अप्रैल 2015 में जब नेपाल में विनाशकारी भूकंप आया. उस समय हर कोई अपना जीवन सुरक्षित करने का हरसंभव प्रयास कर रहा था. भूकम्प के दौरान नेपाल की ‘कुमारी’ यानी ‘जीवित देवी’ को वो करना पड़ा जिसका शायद किसी ने विचार भी नहीं किया था. अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया कि उन्हें जिंदगी में पहली बार नेपाल की गलियों में निकलना पड़ा.
दो वर्ष की उम्र से ही एकाकी जीवन व्यतीत कर रहीं धन कुमारी वज्राचार्य ने अपने आसन पर बैठने के 30 साल के लंबे समये के बारे में चर्चा की. उन्होंने कहा कि 1980 के दशक में उन्हें गद्दी से हटाए जाने की दर्दनाक यादें वे आज तक नहीं भूल पायी है. 25 अप्रैल 2015 को आए 7.8 तीव्रता के भूकंप से पहले वज्राचार्य केवल एक बार सजीधजी पालकी में लोगों को नजर आई थी. नेपाल में ‘जीवित देवी’ को ‘कुमारी’ के नाम से भी पहचाना जाता है. हिंदू और बौद्ध धर्म से जुड़ी परंपराओं से बंधी ‘जीवित देवी’ को एकाकी जीवन जीना पड़ता है और वो लोगों से कभी भी कोई चर्चा नहीं कर सकती है.
देवी की भतीजी चानिरा ने बताया कि हम समझ नहीं पा रहे थे कि करना क्या है? हम दूसरों की तरह घर छोड़कर नहीं जा सकते थे. लेकिन जब प्रकृति मजबूर करती है तो वह सब कुछ करना पड़ता है जिसका आपने कभी विचार भी नहीं किया हो. धन कुमारी को 1954 में विराजमान किया गया था. लगभग तीन दशक तक वह पाटन की कुमारी बन कर रही. नेपाल में कुमारी के चयन के मापदंड बेहद कड़े है. शारीरिक विशेषताओं के साथ बहुत सारी अनिवार्यताओं के पैमानों पर खरा उतरने के बाद ही उसे कुमारी की पदवी प्रदान की जाती है.
ऐसा तीन दशक में पहली बार हुआ जब वज्राचार्य को मजबूरन काठमांडू के दक्षिण में स्थित ऐतिहासिक पाटन शहर के अपने घर से गलियों में आना पड़ा. वे कहती हैं, ‘मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मुझे इस तरह घर छोड़ना पड़ेगा. हजारों लोगों की जान लेने वाली आपदा से वो अभी तक भयभीत है. 63 वर्षीय वज्राचार्य ने जानकारी दी कि लोग परंपराओं का अब सम्मान नहीं करते इसलिए भगवान उनसे क्रोधित है. आपदा के दौरान देवी का पांच मंजिला घर भी हिल गया था. लेकिन परिवार वालो ने इंतजार किया कि देवी वहीं रुकेंगी या परंपरा तोड़कर उनके साथ आएगी.