रथ यात्रा से पहले ख़त्म हुई जगन्नाथ मंदिर की 800 साल पुरानी परंपरा, अंतिम 'देवदासी' का निधन
रथ यात्रा से पहले ख़त्म हुई जगन्नाथ मंदिर की 800 साल पुरानी परंपरा, अंतिम 'देवदासी' का निधन
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पुरी: ओडिशा में विगत शनिवार को महरी पारसमणि के देहांत के साथ ही पुरी के जगन्नाथ मंदिर में 800 वर्ष से अधिक पुरानी देवदासी परंपरा का अंत हो गया है। 92 साल की देवदासी पारसमणि पुरी में भगवान जगन्नाथ की अंतिम जीवित सेविका थीं। पारसमणि बीते आठ दशकों से ज्यादा समय से मंदिर की सेवा कर रही थीं। तक़रीबन 80 वर्षों तक सेवा करने के बाद वर्ष 2010 में उन्हें वृद्धावस्था के कारण भगवान जगन्नाथ के समक्ष गीतगोविंद का पाठ करने की सेवा बंद करने के लिए विवश होना पड़ा। 

शनिवार को लंबी बीमारी के बाद उनका देहांत हो गया। सोमवार (12 जुलाई 2021) को स्वर्गद्वार में उनका अंतिम संस्कार किया गया, जो कि बहुप्रतीक्षित रथ यात्रा का प्रतीक है। पारसमणि शहर के बलिसाही क्षेत्र में लोगों के सहयोग से किराए के मकान में निवास कर रही थीं। दरअसल, सदियों पुरानी इस परंपरा के अंत का आगाज़ राजशाही के हटने के साथ ही हो गया था। ओडिशा सरकार ने 1955 में एक अधिनियम के माध्यम से पुरी के शाही परिवार से मंदिर का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया था। इसी के साथ ही पारसमणि को आखिरी जीवित सेवक बना दिया गया।

क्या है देवदासी या महरी प्रथा ?
देवदासी प्रथा के मुताबिक, 12वीं सदी के जगन्नाथ पुरी मंदिर में महरी भगवान के लिए भजन गाती थीं और नृत्य करती थीं। इन देवदासियों का विवाह भगवान जगन्नाथ, जिन्हें नीलमाधव भी कहा जाता है, के साथ हुआ था। इन देवदासियों ने भगवान को ‘दिव्य पति’ के रूप में स्वीकार किया और ताउम्र कुँवारी कन्या रहीं। इसलिए, महरी परंपरा को कायम रखने के लिए एक महरी को नाबालिग लड़की को गोद लेना होता था और उसे सेवा में शामिल करने से पहले नृत्य, गायन और वाद्य यंत्र बजाना सिखाना होता था। देवदासी प्रथा के बारे में एक लेख में बताया गया है कि, 'भगवान के सोने जाने से पहले नृत्य व गायन प्रस्तुत किया जाता था। यह भगवान जगन्नाथ के प्रति विश्वास का सांस्कृतिक प्रतीक है, जो गायन और कला के अलग-अलग रूपों का उच्चारण कर आत्मा को शुद्ध किया जाता है।' यह एक ऐसा अनुष्ठान है, जिसे सिर्फ महिलाओं को ही करना होता है।

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