भू-अधिग्रहण विवाद: मध्यम-मार्ग में हैं समाधान
भू-अधिग्रहण विवाद: मध्यम-मार्ग में हैं समाधान
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गहन विचार और सौम्य संवाद से ही निकलेगी संतुलन की राह

मोदी सरकार के लिए जो मुद्दा सबसे मुश्किल चुनौती बना हुआ है और विपक्ष जिसे सरकार के खिलाफ सर्वाधिक भुना लेना चाहता है, वह है भूमि अधिग्रहण संबंधी बिल। संसद का मानसून सत्र शुरू होने वाला है, फिलहाल यह बिल संयुक्त संसदीय समिति के पास है, जिसने इस पर सभी से 8 जून तक सुझाव आमंत्रित किए है । लेकिन समिति के अंदर ही इतना विवाद है कि दो तरह कि राय आना तय है । इससे प्रक्रिया मे विलंब भी तय है, जबकि यह विवाद दोनों पक्षो के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न भी बन गया है। सरकार प्रकट में तो यह दिखा रही है कि वह सभी रचनात्मक सुझावों पर विचार करने के लिए तैयार है, परन्तु असल मे वह हर तरह के विरोध का दृढ़ता से सामना करने की तैयारी कर रही है। दूसरी ओर चुनावों में बुरी तरह पराजित हुए विपक्ष को लगता है कि इस मुद्दे से उसे पुनः उभरने का मौका मिल गया है। सभी पक्ष दूसरे की बात सुनने-समझने के बजाय केवल अपनी बात को ही सही साबित करने की कोशिश में पूरी शक्ति लगा रहे है। किसान तो सर्वाधिक भ्रमित हैं और बँटे हुए दिख रहे हैं।

विवाद की पृष्ठभूमि -

पूर्व में अंग्रेजों के बनाये कानून के अनुसार और फिर उसी शैली में बने 1894 के कानून के अनुसार भूमि अधिग्रहण होते रहे अर्थात् लम्बे समय तक लोगों को अन्यायपूर्ण तरीके से सरकारों द्वारा उनकी जमीनें छिने जाने का कटु अनुभव रहा। इस प्रक्रिया के धीरे-धीरे धनीभूत होते रहे विरोध के चलते यूपीए की मनमोहन सरकार ने 2013 में एक ऐसा कानून भाजपा के पूर्ण सहयोग से बनवाया जो कि बहुत अधिक ही भू-स्वामियों के पक्ष में झुका हुआ था। यह अतिरेकपूर्ण कानून बन तो गया लेकिन इसके व्यवहार में लागू होने से पहले सरकार बदल गई। अब चूँकि उक्त अतिवादी कानून के कारण सरकारों द्वारा विभिन्न योजनाओं के लिए जमीन जुटाना मुश्किल ही नहीं असंभव जैसा हो गया था इसलिए कई राज्यों द्वारा इस स्थिति को सुधारने की मांगे होने लगी। मोदी सरकार ने 2013 के कानून में संशोधनों हेतु संसदीय प्रक्रिया का इन्तजार नहीं किया और आनन-फानन में मनचाहे संशोधनों वाला अध्यादेश जारी कर दिया। लेकिन अब विरोधी दलों ने इस मसले को ‘किसान बनाम उदद्योगपति’ का रूप दे दिया है।

संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की दो तरफा रेपोर्ट्स आने से तो देरी होगी ही फिर सरकार की कोशिश होगी कि इसे पहले लोकसभा में पास करवा ले फिर खम ठोंक कर राज्यसभा में पेश करे । परन्तु राज्यसभा में उसके पास बहुमत नहीं है, वहाँ यह पास नहीं होगा। फिर सरकार दोनों सदनों का संयुक्त सत्र बुलाएगी अर्थात मानसून सत्र मे भी यह बिल पास होना मुश्किल है । जिससे विकास भी अवरुद्ध होगा और संबन्धित लटके हुए मामले भी लटके रहेंगे । लेकिन यदि राजनीति से हटकर देशहित को ऊपर रखा जाये तो विचार-विमर्श द्वारा विवादित बिन्दुओं के संतुलित समाधान ढूंढे जा सकते हैं। ऐसे ही समाधान सुझाने की एक ठोस कोशिश यहाँ की गई है।

सर्वप्रमुख विवादित बिन्दु: किसानों (?) की रजामंदी -

किसानों की रजामंदी को किस-किस प्रकार के अधिग्रहण के लिये आवश्यक माना जाये ? यही इस विवाद का सर्वाधिक द्वंद्व वाला बिन्दु है। पहली बात तो यह है कि यहाँ ‘किसानों’ शब्द का प्रयोग ही त्रुटिपूर्ण है, क्योंकि जिस किसी की भूमि अधिग्रहित की जाती है वे सभी किसान नहीं होते हैं। इसलिये उन्हें जमीन-मालिक या भूस्वामी कहा जाना चाहिए। दूसरी ओर अधिकांश मामलों में जमीनें निजी क्षेत्रों या उद्योगों के लिए नहीं बल्कि तरह-तरह की विकास योजनाओं के लिये ली जाती है। इसलिये इस विवाद को ‘किसान बनाम उद्योगपति’ ऐसा स्वरूप देने की कोशिशे सरासर गलत है। राजनीतिक स्वार्थो के चलते ऐसी कोशिशे तो होगी ही। खैर, विवाद का बिन्दु तो यह है कि सरकार ने पाँच प्रकार की परियोजनाओं को बहुत महत्वपूर्ण मानते हुए, उनके लिए किसानो की रजामंदी को गैर-जरूरी कर दिया है, ये पाँच प्रकार हैं - राष्ट्रीय सुरक्षा, ग्रामीण अधोसंरचना, सस्ते आवास, औद्योगिक कारीडोर तथा अधोसंरचना की (पीपीपी मॉडल वाली योजनाओं सहित) परियोजनाएँ। सरकार का यह तर्क मानने योग्य है की ऐसी महत्वपूर्ण और अन्य कम जरूरी योजनाओं के बारे में अलग-अलग नीति बनाई जाना चाहिए ।

समाधान क्या है ?

जहाँ एक ओर, सरकार का यह सोचना गलत है कि भूस्वामी विकास की जरूरतों को और देशहित को नहीं समझते हैं और अच्छी मुआवजा राशि मिलने पर भी अपनी जमीनें छोड़ने को राजी नहीं होंगे। वहीं दूसरी ओर विरोधी पक्ष द्वारा यह जताना कि जिनकी जमीन ली जाती है, वे जमीन के बदले तगड़ी राशि लेकर भी उजड़ जायेंगे या उनके प्रति बड़ा अन्याय हो जायेगा, यह भी गलत है। यदि विकास परियोजनाओं के महत्व और लाभों को ठीक प्रकार से समझाया जायेगा और साथ-साथ मुआवजा राशि भी समयानुसार प्रतिबद्धता के साथ दी जायेगी तो भूस्वामी सहर्ष जमीन क्यों नहीं देंगे ? अब तक के अनुभव अच्छे नहीं रहे हैं, इसलिये हो सकता है कुछ भूस्वामी तब भी इंकार करें, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि सरकारों को जबर्दस्ती करने का हक दिया जाये । सरकारों को ‘साम व दाम’ विधियों का संयुक्त प्रयोग करके ही उन्हें मनाना होगा।

एकमात्र राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले ही ऐसे माने जा सकते हैं, जहाँ समय सीमा होने पर, सरकारों का भूस्वामियों की रजामंदी से छूट दी जा सकती है। जो पाँच महत्वपूर्ण प्रकारों की परियोजनाएँ मानी गई है उनकी उपयोगिता को देशहित में भूस्वामी भी समझकर स्वीकार कर ही सकते हैं और कम से कम उनके बहुमत को तो साम व दाम विधियों से पक्ष में किया ही जा सकता है। इसलिये प्रजातांत्रिक व्यवस्था के अब तक के जो मान्य सिद्धांत हैं, उन्हीं के अनुसार इन परियोजनाओं का फैसला हो सकता है। इन जरूरी परियोजनाओं के लिए 70 या 80 प्रतिशत रजामंदी का इन्तजार करने की आवश्यकता नहीं है, यदि भूस्वामियों का बहुमत भी राजी हो जाता है तो इन परियोजनाओं को नहीं रोका जाना चाहिए।

अब जो अन्य प्रकार की परियोजनाएँ हैं, जिनमें उद्योगों या कारोबारियों के हित जुड़े हुए हैं, उनके लिए पहली बात तो यह है कि जहां तक हो सके, सरकारों को जमीन अधिग्रहण करके उन्हें पूँजीपतियों को उपलब्ध करवाने की पूरी जिम्मेदारी लेना ही नहीं चाहिए। ऐसे मामलों में सरकारों को कम्पनियों या उद्योगों का आवश्यक सहयोग तो करना चाहिए, लेकिन भूस्वामियों को राजी करने और मुआवजा देने में कम्पनियों की भी अग्रणी भागीदारी होना चाहिए। दूसरी बात ऐसे अधिकांश मामलों में दो तिहाई भूस्वामियों की रजामंदी भी आवश्यक मानी जा सकती है।

सामाजिक प्रभावों का अध्ययन क्यों चाहिये ?

‘विस्थापन के सामाजिक प्रभाव’ यह विषय ऐसा है जिसे असल में एकपक्षीय भावनात्मक भाषणों या लेखों से हव्वा बना दिया गया है। इस सम्बन्ध में दूसरे पक्ष को भी समझना और कटु ही नहीं बल्कि मधुर सच्चाईयों को भी स्वीकार किया जाना जरूरी है। हर प्रकार, हर स्तर के भूमि अधिग्रहण को विस्थापन करार दिया जाना ही गलत है। सबसे जरूरी तो यह समझना होगा कि यदि विस्थापन होता भी है तो उसके हमेशा सभी बुरे प्रभाव नहीं होते हैं, बहुधा बहुत से अच्छे प्रभाव भी होते हैं। पुरानी बस्ती, पुराना रोजगार, पुराना परिवेश, पुरानी संस्कृति छूटती है तो नयी बस्ती, नया रोजगार, नया परिवेश, नयी संस्कृति मिलती भी तो है। बहुत से संदर्भों में पुराने से नया बेहतर होता है। अच्छे-बुरे परिवर्तनों से हिचकोले खाते हुए ही सभ्यताओं के विकास का रथ आगे बढ़ता है। व्यवहारिक तथ्य यह है कि जब रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और अच्छी खासी धनराशि के साथ नये सिरे से जीवन सँवारने की स्थिति पैदा होगी तो अधिकतर लोग पहले से बेहतर जीवन अपनाने की ओर ही प्रवृत्त होंगे। पहले से अधिक जमीन लेकर खेती करेंगे या शिक्षा, कौशल, आदि प्राप्त करके अन्य प्रकार के नौकरी, व्यापार, आदि करेंगे। खेती पर अधिक लोगों की निर्भरता कम होगी तो यह तो अच्छा ही होगा ना ।   

सच पूछा जाये तो अधिकांश संभावित सामाजिक प्रभावों की जानकारी सभी स्थापित समाजशास्त्रियों को पहले से ही है। आप कभी भी उनसे चाहे जैसी नकारात्मक या सकारात्मक रिपोर्ट बनवा सकते हैं। चूँकि ये अध्ययन वस्तुनिष्ठ या मापे जाने योग्य तथ्यों के नहीं होते हैं, इसलिये इस प्रकार के कथित अध्ययनों में जो जैसे चाहे वैसे ही नतीजे निकाल सकते हैं। स्पष्ट है कि ‘सामाजिक प्रभावों के अध्ययन’ के नाम पर ऐसे विषेषज्ञों व एजेंसियों को अच्छी कमाई के ठेके दिलाने की व्यवस्था होगी या यों भ्रष्टाचार की खिड़किया खुलेगी। अधिकतर मामलों में यह निहायत गैर-जरूरी कवायद है। इसलिये विस्थापितों के असली हितैशियों को चाहिये कि अध्ययन रिपोर्टों की औपचारिक कवायदों में विकास परियोजनाओं को उलझाने के बजाय वे सही मुआवजा राशि और सही पुनर्वास व्यवस्था पर ही ध्यान दें। सामाजिक प्रभावों के अध्ययन संबंधी अड़ंगे को तो सभी जगह से हटा ही देना चाहिये ।

विलम्ब का खामियाजा भू-स्वामी क्यों भुगते ?

 भू-अधिग्रहण एक्ट-2013 में सीधे-सीधे मान लिया गया है कि एक जनवरी 2009 के पहले अधिग्रहीत की गई जमीनों का यदि मुआवजा नहीं दिया गया या उसका कोई उपयोग नहीं किया गया तो वह जमीन भूस्वामी को वापिस लौटा दी जाये। यहाँ सरकार ने मामलों के कोर्ट में लम्बित रहने की अवधि को विलम्ब में से घटा देना चाहा है। ऐसे में हर मामले में अलग-अलग कई तथ्य देखना होंगे, जैसे विलम्ब किसके कारण अधिक हुआ ? क्या कोर्ट ने सरकार को मुआवजा अदा करने से भी रोका था? सरकार ने कोर्ट के बाहर समस्या के समाधान की कोशिशे की थी या नहीं? यदि विलम्ब के कारण जमीन पर कोई विकास कार्य भी नहीं हुआ और खेती भी नहीं हुई तो यह भूस्वामी का ही नहीं देश का भी नुकसान है। जहाँ भी मुआवजा लम्बे समय तक नहीं दिया गया वहाँ भूस्वामी को मुआवजा राशि नये कानून के अनुसार मिलनी चाहिये और साथ ही पुरानी स्वीकृत मुआवजा राशि पर ब्याज भी मिलना चाहिये। सरकारी तंत्र द्वारा किये गये विलम्ब का नुकसान भूस्वामी पर कतई नहीं डालना चाहिये।

दोषी अधिकारियों को बचाना आत्मघाती है -

2013 के कानून में ऐसे अधिकारियों के खिलाफ कोर्ट में जाने और दण्डात्मक कार्यवाही होने की वाजिब व्यवस्था थी; जिन्होंने भू-अधिग्रहण के लिये कानून से परे जाकर कोई कार्य किया था। लेकिन अब सरकार ने संशोधन द्वारा ऐसे कानूनी रूप से दोषी अधिकारियों को बचाने का इंतजाम कर लिया है॰ जिनके कामकाज से जनता नाराज है या जिन्होंने कानूनी प्रक्रिया का उल्लंघन किया है। कोई भी व्यक्ति किसी सरकारी अधिकारी के खिलाफ कोर्ट मेँ जाने का जोखिम तभी उठाता है, जबकि वह वाकई बहुत गलत व्यवहार का शिकार हुआ हो और उसके पास इस बात के पक्के सबूत हो। ऐसे में सरकार यदि अपने दोषी अधिकारियों को बचाने के लिए ‘सरकार की अनुमति’ का अडंगा डाल रही है तो बहुत गलत और जनविरोधी काम कर रही है। इससे सरकार को दो प्रकार से नुकसान होगा। एक तो जो लोग उन अधिकारियों के क्रिया-कलाप से नाराज हैं वे और अधिक नाराज होंगे। कोर्ट में नहीं तो कई अन्य तरीकों से सरकार की छवि धूमिल करेंगे। दूसरी ओर जो अधिकारी कानून सम्मत काम करना जरूरी नहीं समझते हैं वे अब अधिक दम्भ के साथ जनता से पेश आयेंगे, जिससे सरकार की छवि धूमिल होगी। जबकि प्रजातांत्रिक समाज में ऐसे अधिकारियों में से अंग्रेजी राज के दम्भपूर्ण कुसंस्कार निकालने के लिये उन्हें दण्डित किया जाना जरूरी है ।

समय सीमा संबंधी दोनों संशोधन भी गलत -

कोई भी परियोजना कई तरह की समीक्षाओं के बाद स्वीकृत की जाती है और उसके बाद ही भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही होती है। अब सरकार ने लार एक्ट-2013 के समय सीमा संबंधी प्रावधानों में जो दो संशोधन किये हैं वे सरकार की स्वैच्छाचारिता की मानसिकता को दर्शाते हैं। वे दिखाते हैं कि सरकार किसी भी तरह का समय सीमा में कार्य पालन का बंधन नहीं चाहती है। जबकि सरकारों को जवाबदेह बनाने के लिये ऐसे बंधन डाले जाना जरूरी है। यह तो समझ से परे है कि भूमि को कब्जे में लेने के बाद भी सरकार 5 साल तक भी कोई इस्तेमाल न करे तब भी परियोजना को विलम्बित ताल में चलने दिया जाये। 2013 के कानून में ऐसे विलम्बों के मामलों में जमीनें पुनः भू-स्वामियों को लौटा देने का वाजिब प्रावधान किया गया है। जब 5 सालों में सरकारें बदल जाती हैं तो बड़ी मात्रा में जमीनों को अधिग्रहण के बाद भी ऐसे ही अनुपयोगी क्यों पड़े रहने देना चाहिये? ऐसे कुछेक मामलों में भले ही सरकार कोर्ट में जाकर, विलम्ब करने की अपनी गलती को स्वीकार करते हुए, परियोजना के महत्त्व को बताते हुए कोर्ट के निर्णयानुसार वाजिब मुआवजा और दण्ड अदा करके ही जमीन अपने पास रखने की गुजारिश कर सकती है और उसे यह इजाजत तभी मिलना चाहिये जबकि वह जमीन का निर्धारित समय-सीमा में उपयोग करने का अदालत में वचन दें। कानून को लागू करवाने के लिये दो साल की अवधि को नई सरकार द्वारा 5 साल किया जाना भी उसी तरह की विलम्बित ताल में काम करने की आजादी पाने की कोशिश है, इसे भी निरस्त कर दिया जाना चाहिये।

सारांश यह है कि सरकार द्वारा 2013 के कानून में जो संषोधन किये गये हैं उनमें से भू-स्वामियों की रजामंदी के बारे में मध्यम-मार्ग निकालना चाहिये। सामाजिक प्रभावों के अध्ययन का प्रावधान खत्म करना ही सही है। शेष सभी संशोधन सामान्य रूप से तो गैरवाजिब ही नजर आते हैं, किन्तु फिर भी उन पर विशेषज्ञों की राय लेकर संसद में विचार होना चाहिये; ताकि यदि वे विकास के लिये आवश्यक ही हो तो उन्हें बर्दाश्त कर लिया जाये। हाँ, सरकार यदि 2013 के पहले के पुराने अन्यायपूर्ण कानून के तहत किये गये अधिग्रहणों के पापों को धोने का भी कोई वाजिब उपाय निकालना चाहे तो वह स्वागत योग्य होगा।  

- हरिप्रकाश ‘विसन्त’

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