यहाँ जानिए गणगौर व्रत की कथा
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भारत में गणगौर पूजा को बेहद धूम धाम के साथ मनाया जाता है। इस व्रत को राजस्थान में बहुत हर्ष एवं उल्लास के तौर पर मनाया जाता है। इस दिन मां गौरी अर्थात् माता पार्वती की पूजा की जाती है। हिंदू पंचांग के मुताबिक, चैत्र माह शुल्क पक्ष की तृतीया तिथि को गणगौर पूजा की जाती है। इस वर्ष यह त्यौहार 24 मार्च को मनाया जाएगा। आइए आपको बताते हैं गणगौर व्रत कथा....

गणगौर व्रत कथा:-


एक वक़्त की बात है, भगवान शंकर, माता पार्वती जी एवं नारदजी के साथ भ्रमण हेतु चल दिए। वे चलते-चलते चैत्र शुक्ल तृतीया को एक गाँव में पहुँचे। उनका आगमन सुनकर ग्राम की निर्धन महिलाऐं उनके स्वागत के लिए थालियों में हल्दी एवं अक्षत लेकर पूजन हेतु तुरतं पहुँच गई। पार्वती जी ने उनके पूजा भाव को समझकर सारा सुहाग रस उन पर छिड़क दिया। वे अटल सुहाग प्राप्त कर लौटीं। धनी वर्ग की महिलाऐं थोडी देर पश्चात् अनेक तरह के पकवान सोने-चाँदी के थालो में सजाकर पहुँची। इन महिलाओं को देखकर भगवान महादेव ने माता पार्वती से बोला- तुमने सारा सुहाग रस तो निर्धन वर्ग की महिलाओं को ही दे दिया। अब इन्हें क्या दोगी? पार्वतीजी ने कहा- प्राणनाथ! उन महिलाओं को ऊपरी पदार्थो से बना रस दिया गया है। इसलिए उनका रस धोती से रहेगा। लेकिन मैं इन धनी वर्ग की स्त्रियों को अपनी अंगुली चीरकर रक्त का सुहाग रस दूँगी जो मेरे समान सौभाग्यवती हो जाएँगी। जब इन स्त्रियों ने पूजन समाप्त कर लिया तब पार्वती जी ने अपनी अंगुली चीरकर उस रक्त को उनके ऊपर छिड़क दिया। जिस पर जैसे छीटें पड़े उसने वैसा ही सुहाग पा लिया। तत्पश्चात, पार्वती जी अपने पति भगवान महादेव से आज्ञा लेकर नदी में स्नान करने चली गईं। स्नान करने के बाद बालू की शिवजी की मूर्ति बनाकर पूजन किया। भोग लगाया तथा प्रदक्षिणा करके दो कणों का प्रसाद खाकर मस्तक पर टीका लगाया। उसी वक़्त उस पार्थिव लिंग से शिवजी प्रकट हुए तथा पार्वती को वरदान दिया: आज के दिन जो स्त्री मेरा पूजन और तुम्हारा व्रत करेगी उसका पति चिरंजीवी रहेगा तथा मोक्ष को प्राप्त होगा। भगवान महादेव यह वरदान देकर अन्तर्धान हो गए।

इतना सब करते-करते पार्वती जी को बहुत वक़्त लग गया। पार्वतीजी नदी के तट से चलकर उस स्थान पर आई जहाँ पर भगवान महादेव व नारदजी को छोड़कर गई थीं। शिवजी ने विलम्ब से आने की वजह पूछी तो इस पर पार्वती जी बोली, मेरे भाई-भावज नदी किनारे मिल गए थे। उन्होने मुझसे दूध भात खाने तथा ठहरने का आग्रह किया। इसी वजह से आने में देर हो गई। ऐसा जानकर अन्तर्यामी भगवान शंकर भी दूध भात खाने के लालच में नदी तट की ओर चल दिए। पार्वतीजी ने मौन भाव से भगवान महादेव का ही ध्यान करके प्रार्थना की, भगवान आप अपनी इस अनन्य दासी की लाज रखिए। प्रार्थना करती हुई पार्वती जी उनके पीछे-पीछे चलने लगी। उन्हे दूर नदी तट पर माया का महल नजर आया। वहाँ महल के अन्दर शिवजी के साले तथा सहलज ने शिव पार्वती का स्वागत किया। वे दो दिन वहाँ रहे, तीसरे दिन पार्वती जी ने महादेव से चलने के लिए कहा तो भगवान महादेव चलने को तैयार न हुए। तब पार्वती जी रूठकर अकेली ही चल दी। ऐसी परिस्थिति में भगवान महादेव को भी पार्वती के साथ चलना पड़ा। नारदजी भी साथ चल दिए। चलते-चलते भगवान शंकर ने कहा- मैं तुम्हारे मायके में अपनी माला भूल आया। माला लाने के लिए पार्वतीजी तैयार हुई तो भगवान ने पार्वतीजी को न भेजकर नारद जी को भेजा। वहाँ पहुँचने पर नारद जी को कोई महल दिखाई नहीं दिया। वहाँ दूर-दूर तक जंगल ही जंगल था। सहसा बिजली कौंधी, नारदजी को शिवजी की माला एक पेड पर टंगी नजर आई। नारदजी ने माला उतारी एवं शिवजी के पास पहुँच कर यात्रा कर कष्ट बताने लगे। शिवजी हँसकर कहने लगे: यह सब पार्वती की ही लीला हैं। इस पर पार्वती जी ने कहा- मैं किस योग्य हूँ। यह सब तो आपकी ही कृपा है। ऐसा जानकर महर्षि नारदजी ने माता पार्वती तथा उनके पतिव्रत प्रभाव से उत्पन्न घटना की मुक्त कंठ से प्रंशसा की।

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