सड़क के आसपास हरियाली, हरियाली के दूसरी ओर उंचे काले पहाड़, इन पहाड़ों की ओट से लुकाछिपी करता सूर्य। इन पहाड़ों की ओर जाती सड़क पर वाहन के चढ़ाई करने के साथ नज़र आती गहरी खाई और खाई के पास से इठलाकर बहती नदी। जी हां.. ये नज़ारे हैं प्रकृति के मुक्त उपहार से आच्छादित महाराष्ट्र के। मगर अब यहां न तो इन खूबसूरत वादियों में प्रकृति का कोई मधुर गीत सुनाई देता है और न ही खुशियां मनाते ग्रामीण नज़र आते हैं। सुनाई पड़ती है तो चीत्कार, बच्चों और महिलाओं का करूण कृंदन। दिखाई पड़ती है तो महाराष्ट्र के ग्रामीणों के घरों में सुबह सवेरे जमा होने वाली भीड़। इस भीड़ में भी कोई शोर नहीं होता, एक धीर गंभीर शांतता के साथ एकाएक राम नाम सत्य है कि आवाज़ सभी के कलेजे को भेद देती है।
जी हां... हम बात कर रहे हैं, महाराष्ट्र की। वह महाराष्ट्र जो कभी सुदूर गांवों तक फैली पक्की सड़कों, गन्ने के खेतों, केले की आवक, संतरों और प्याज की पैदावार के लिए जाना जाता था लेकिन अब यहां के खेत वीरान पड़े हैं, किसानों के घर मातमी सन्नाटा पसरा पड़ा है। कुछ सुबह अपना टिफिन बांधकर अपने गांव से मुंबई के सराय के लिए निकल पड़ते हैं कि आज कुछ काम मिल जाए तो बच्चे की ट्यूशन फीस चुकता कर दें, आज ठेकेदार काम लगा दे तो बच्ची की शादी की रकम बढ़ जाए। पिछले साल शकर मिलों ने गन्ना खरीदने से मना कर दिया। उम्मीद थी इस बार बाज़ार में गन्ना बिकेगा मगर इस बार मौसम ने दगा दे दिया। ठीक ही कहा है भारतीय कृषि मौसम का जुंआ है। मगर इसे भी ईश्वर की इच्छा मानकर बाबूराव बेटी की शादी के लिए इस उम्मीद में साहूकार से क़र्ज़ ले रहा है कि अगली बार वह दुगनी मेहनत कर अपनी जमीन साहूकार से छुड़वा लेगा लेकिन उसे क्या पता क़र्ज़ के तले वह अपना जीवन ही दांव पर लगा आया है। अभी बेटी की बारात विदा हुए छः महीने ही गुजरे थे कि गांव वालों को खबर मिली बाबूराव ने अपने खेत में आत्महत्या कर ली है।
जी हां, लाचारी, बरबसता की यह कहानी महाराष्ट्र के किसानों के बीच आज भी दोहराई जा रही है। आज भी महाराष्ट्र के किसान सूखे और साहूकारी प्रथा की मार झेल रहे हैं। हालात ये हैं कि इनके बच्चों को अच्छी शिक्षा तो दूर दो जून की रोटी भी नसीब नहीं हो रही है। अडानी, और अंबानी के सरकार के साथ संबंधों का आरोप लगाने वालों को सूबे के इन किसानों से कोई सरोकार नहीं, जिस सरकार ने उन्हें बीड़ की बेटी होने की दुहाई दी लगता है उसका भी इनसे कोई नाता नहीं। किसान अपनी बदहाली पर खुद ही आंसू बहा रहा है। इस उम्मीद में वह खाली पेट पानी पीकर सो जाता है कि आने वाले मौसम में हालात बदलेंगे और वह दुगना मेहनत कर अपनी जमीन छुड़ा लेगा। मगर वास्तविकता इससे कोसो दूर है। लगभग वर्ष 2009 से बिगड़े हालात अभी भी जस के तस बने हुए हैं। पहले जहां गन्ने की फसल न बिकने, साहूकारी प्रथा का बोझ होने से किसान परेशान था वहीं अब वह सूखे की मार से परेशान है। बेकारी और लाचारी की मार झेल रहा किसान जाए तो आखिर जाए कहां, पिछली सरकार तो अलविदा कह चुकी नई सरकार ने अभी - अभी जो काम संभाला है।
राजनीति के दांव - पेंच न समझने वाला किसान अब ईश्वर से आस लगा रहा है। कुछ ऐसे हैं जो दूसरे के खेतों में मजदूरी कर काम चला रहे हैं तो कुछ सीजन की फसल को ठीक करने में लगे हैं। मगर दोनों पर ही लाचारी की मार अभी भी कायम है। खाली समय में वह भगवान के भजन कर उसे मनाने की कोशिश में लग जाता है। शायद उसका रूठा विठोबा मान जाए और उसे लाचारी के जीवन से मुक्ति मिल जाए। उसके बच्चे अब दर्द भरा जीवन देने वाला यह धंधा अपनाना नहीं चाहते, इसलिए 200 किलोमीटर दूर मायानगरी मुंबई में अपना भाग्य आजमाने लोकल ट्रेन की रफ्तार से कदमताल मिलाते हैं। महज इसी उम्मीद में कि उनका लड़खड़ाता जीवन पटरी पर आ जाए। मगर सियासत दारों को इससे कोई सरोकार नहीं है संसद के गलियारे में लगती ठंड को हंगामे की गर्मी से दूर किया जाता रहा है। महंगी दर का खाना सस्ते में खाने वाले सांसदों को तो बस हंगामा बरपाने से सरोकार है। शोर गुल के बीच वे ये तक भूल गए हैं कि उनके बंगले की रसोई को प्याज देने वाला किसान हैरान - परेशान है।
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