कबीर के दोहे अर्थ सहित
कबीर के दोहे अर्थ सहित
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कबीर के दोहे अर्थ सहित 

कबीर एक उच्चकोटि के आध्यात्मिक साधक थे, उनके दोहो में उनके अनुभव और आध्यात्मिक जीवन का सार है | इन्हे पढने से जीवन के प्रति सकारात्मकता बढ़ती है| आइये जाने कुछ अनमोल दोहे |

सार शब्द जानै बिना, जिन पर लै में जाय।
काया माया थिर नहीं, शब्द लेहु अरथाय।।
अर्थ :- सार तत्व को जाने बिना यह जीव प्रलय रूपी मृत्यु चक्र में पड़कर अत्यधिक दुःख पाता है। मायारूपी धन संपत्ति और पंचत्तत्वों में मिल जायेगा और धन संपत्ति पर किसी अन्य का अधिकार हो जायेगा। अतः काया और माया का अर्थ जानकर उचित मार्ग अपनाये।

गुरु बिन माला फेरते, गुरु बिन देते दान।
गुरु बिन सब निष्फल गया, पूछौ वेद पुरान।।
अर्थ :- गुरु बिना माला फेरना पूजा पाठ करना और दान देना सब व्यर्थ चला जाता है चाहे वेद पुराणों में देख लो अर्थात गुरुं से ज्ञान प्राप्त किये बिना कोई भी कार्य करना उचित नहीं है।

साधु दर्शन महाफल, कोटि यज्ञ फल लेह।
इक मन्दिर को का पड़ी, नगर शुद्ध करि लेह।।
अर्थ :- साधु संतों का दर्शन महान फलदायी होता है, इससे करोड़ो यज्ञों के करने से प्राप्त होने वाले पूण्य फलों के बराबर फल प्राप्त होता है। सन्तो का दर्शन, उनके दर्शन के प्रभाव से एक मन्दिर नहीं, बल्कि पूरा नगर पवित्र और शुद्ध हो जाता है। सन्तों के ज्ञान रूपी अमृत से अज्ञानता का अन्धकार नष्ट हो जाता है।

बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार।
दोऊ चुकि खाली पड़े , ताको वार न पार।।
अर्थ :- साधु को वैरागी और संसारी माया से विरक्त होना चाहिए और गृहस्थ जीवन व्यतीत कर रही प्राणी को उदार चित्त होना चाहिए। यदि ये अपने अपने गुणों से चूक गये तो वे खाली रह जायेगे। उनका उद्धार नहीं होगा।

माला तिलक तो भेष है, राम भक्ति कुछ और।
कहैं कबीर जिन पहिरिया, पाँचो राखै ठौर।।
अर्थ :- माला पहनना और तिलक लगाना तो वेश धारण करना है, इसे वाह्य आडम्बर ही कहेंगे। राम भक्ति तो कुछ और ही है। राम नाम रूपी आन्तरिक माला धारण करता है, वह अपनी पाँचों इन्द्रियों को वश में करके राम माय हो जाता है।
यह तो घर है प्रेम का ऊँचा अधिक इकंत।

शीष काटी पग तर धरै, तब पैठे कोई सन्त।।
अर्थ :- यह प्रेम रूपी घर अधिक ऊँचा और एकांत में बना हुआ है। जो अपना सिर काटकर सद्गुरु के चरणों में अर्पित करने की सामर्थ्य रखता हो वही  इसमें आकर बैठ सकता है अर्थात प्रेम के लिए उत्सर्ग की आवश्यकता होती है।

सबै रसायन हम पिया, प्रेम समान न कोय।
रंचन तन में संचरै, सब तन कंचन होय।।
अर्थ :- मैंने संसार के सभी रसायनों को पीकर देखा किन्तु प्रेम रसायन के समान कोइ नहीं मिला। प्रेम अमृत रसायन के अलौकिक स्वाद के सम्मुख सभी रसायनों का स्वाद फीका है। यह शरीर में थोड़ी मात्रा में भी प्रवेश कर जाये तो सम्पूर्ण शरीर शुद्ध सोने की तरह अद्भुत आभा से चमकने लगता है अर्थात शरीर शुद्ध हो जाता है।
करता था तो क्यौं रहा, अब करि क्यौं पछताय।

बोवै पेड़ बबूल का, आम कहां ते खाय।।
अर्थ :- जब तू बुरे कार्यो को करता था, संतों के समझाने पर भी नहीं समझा तो अब क्यों पछता रहा है। जब तूने काँटों वाले बबूल का पेड़ बोया तो बबूल ही उत्पन्न होंगें आम कहां से खायगा। अर्थात जो प्राणी जैसा करता है, कर्म के अनुसार ही उसे फल मिलता है।

दुनिया के धोखें मुआ, चला कुटुम्ब की कानि।
तब कुल की क्या लाज है, जब ले धरा मसानि।।
अर्थ :- सम्पूर्ण संसार स्वार्थी है। स्वार्थ की धोखा धड़ी में ही जीव मरता रहा और संसारी माया के बंधनों में जकड़ा रहा। तुम्हारे कुल की लज्जा तब क्या रहेगी जब तुम्हारे शव को ले जाकर लोग शमशान में रख देंगे।


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