इस मजार पर रूकती है जगन्नाथ रथयात्रा!, बड़ी अनोखी है इसकी कहानी
इस मजार पर रूकती है जगन्नाथ रथयात्रा!, बड़ी अनोखी है इसकी कहानी
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2 साल बाद एक बार फिर उड़ीसा के पुरी में भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा (Jagannath Puri Rath Yatra) निकाली जा रही है। जी हाँ और आज ही यानी 1 जुलाई से रथ यात्रा (Rath Yatra In Puri) का शुभारंभ हो रहा है जो 12 जुलाई तक चलेगा। आप सभी को बता दें कि भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा को एक मजार के सामने भी रोका जाता है। ऐसा क्यों यह आज हम आपको बताने जा रहे हैं।

क्यों निकाली जाती है रथ यात्रा?- जी दरअसल ऐसा कहा जाता है कि रथयात्रा से भगवान जगन्नाथ अपने भाई बलराम और बहन सुभद्रा के साथ अपनी मौसी के घर जाते हैं। जी हाँ और इस वजह से पुरी में जगन्नाथ मंदिर से 3 रथ रवाना होते हैं, इनमें सबसे आगे बलराम जी का रथ, बीच में बहन सुभद्रा का रथ और सबसे पीछे जगन्नाथजी का रथ होता है। ऐसी मान्यता है कि एक बार भगवान जगन्नाथ की बहन सुभद्रा ने उनसे नगर देखने की इच्छा जाहिर की तो वो उन्हें भाई बलभद्र के साथ रथ पर बैठाकर ये नगर दिखाने लाए थे। ऐसा भी कहा जाता है कि इस दौरान वो भगवान जगन्नाथ की अपने मौसी के घर गुंडिचा भी पहुंचे और वहां पर सात दिन ठहरे थे। वहीं इसी पौराणिक कथा को लेकर रथ यात्रा निकाली जाती है।

मजार पर रुकता है भगवान का रथ- ऐसी मान्यता है कि इस रथ यात्रा के दौरान एक मजार पर भी भगवान का रथ रोका जाता है और यह मजार ग्रैंड रोड पर करीब 200 मीटर आगे है और जैसे ही ये रथ वहां से गुजरता है तो दाहिनी ओर एक मजार है, जहां इसे रोका जाता है। यहां कुछ देर रथ के रुकने के बाद फिर रथ आगे बढ़ता है। जी हाँ और इसके पीछे कुछ पौराणिक कथाएं हैं। द क्विटं की एक रिपोर्ट के अनुसार, जहांगीर के वक्त एक सुबेदार ने ब्राह्मण विधवा महिला से शादी कर ली थी और उसके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम सालबेग था। मां हिंदू होने की वजह से सालबेग ने शुरुआत से ही भगवान जगन्नाथ पंथ का रुख किया।

सालबेग की भगवान जगन्नाथ के प्रति काफी भक्ति थी, लेकिन वो मंदिर में प्रवेश नहीं कर पाते थे। इसके अलावा इस पौराणिक कथा में बताया जाता है कि सालबेग काफी दिन वृंदावन भी रहा और रथ यात्रा में शामिल होने ओडिशा आए तो बीमार पड़ गए। इसके बाद सालबेग ने भगवान को मन से याद किया और एक बार दर्शन की इच्छा जताई। इस पर भगवान जगन्नाथ खुश हुए और उनका रथ खुद ही सालबेग की कुटिया के सामने रुक गई। वहां भगवान ने सालबेग को पूजा की अनुमति दी। सालबेग को सम्मान देने के बाद ही भगवान जगन्नाथ का रथ आगे बढ़ा। ऐसे में आज भी ये परंपरा चली आ रही है।

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