मानवाधिकार सिर्फ एक सोच या वाकई है असरकारक
मानवाधिकार सिर्फ एक सोच या वाकई है असरकारक
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अधिकार, हक, Right......इन वाकयों को हम सबने सुना है पर कम ही लोग इसके असल मायनों से परिचित होंगे। अधिकार जाहिर तौर पर मानव के लिए है इसलिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने 10 दिसंबर को अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस घोषित किया। मकसद है हर व्यक्ति अपने अधिकारों को समझें, जानें और समय अनुकुल उसका प्रयोग करे। भारत की बात करे तो संसार के इस एक मात्र लिखित संविधान में नागरिकों को 6 मौलिक अधिकार दिए गए है। जिनका वर्णन धारा 14-32 में है। इसके तहत भारत के प्रत्येक नागरिक को समानता, स्वतंत्रता, शोषण के विरुद्ध, धर्म को अपननाने की छूट, सांस्कृतिक व शैक्षणिक अधिकार दिए गए है। अधिकारो का हनन तो हर गली चौराहे पर होता दिख जाता है। कभी किसी महिला के बर्तन में ढनढनाती तो कभी किसी छोटू के हाथों में घूमती चाय के कप में, तो कभी किसी सोफिसटिकेटेड कॉरपोरेट हाउस में शोषण के रुप में और कभी किसी के रुप में और कभी किसी चीखती शांत सड़कों पर। गठन, सेलिब्रेशन तक तो ठीक है, पर इंप्लीमेंटेशन।

1984 की भोपाल गैस त्रासदी तो सभी को याद होगी, जब रातों रात सारा शहर कब्रिस्तान बन गया था। 31 साल बाद भी उन्हें उनका अधिकार नही मिला। यूपी व झारखंड के कई जगहों पर औरतों को डायन बताकर नंगा घूमाया जाता है, तो कभी उनकी जुबान काट दी जाती है। ऑफिस में शोषण का ताजा मामला टेरी प्रमुख का है और थोड़ा पीछे जाए तो गोपाल कांडा और गीता का उदाहरण है। जिस शोर से पूरा देश गूंज रहा है। दादरी कांड—मानवाधिकार हनन का सबसे बड़ा मामला है।

ये तो चंद उदाहरण है, मानवाधिकार की चमड़ी उधेड़ने के लिए। ऐसा नही है कि ये अपना काम नही करते। मानवाधिकार आयोग तो पुलिस से भी जल्दी अपना काम करती है। फिल्म दृश्यम का वो दृश्य तो याद ही होगा जब पुलिस वाला बच्ची से सच उगलवाने के लिए बच्ची को पीटता है, इस पर मानवाधिकार वालों ने उस पुलिस वाले की जमकर पिटाई की थी। पर ये मात्र फिल्मों में होता है हकीकत कुछ और ही है। असल जिंदगी में आयेग आतमकियो को बेगुनाह बताकर उन्हें जेल से छुड़ाने के लिए प्रदर्शन करता है तो कभी रेप के गुनहगार को नाबालिग बताकर बचाने की कोशिश की जाती है। फिर भी 2014 में ह्युमन राइट्स डे के सेलिब्रेशन का थीम रखा गया था।

“2014 year: celebrating 20 years of changing life through human rights”

मानवाधिकार हनन का आंकड़ा दिनो दिन बढ़ता ही जा रहा है। 2009-10 में जहां 5228 मामले थे तो वही 2010- 11 में यह आंकड़ा बढ़कर 5929 हो गया और 2011-12 में अपार बढ़त के साथ 7865 पर पहंच गया। देश में कुल 22 मानवाधिकार आयोग है जिसमें से 10 पूरी तरह से निष्क्रिय है। कुछ बिना चेयरपर्सन के तो कुछ एक स्टाफ के सहारे चल रहे है। राजस्थान, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, मनीपूर, कर्नाटक, उतराखंड, तमिलनाडु, महाराष्ट्र और जम्मू व कश्मीर में कोई चेयरपर्सन नही है जब कि छतीसगढ़ में है। 2012 तक दिल्ली जैसे मेट्रो सिटीज में जहां अनियंत्रिय घटनांए होती है, में मानवाधिकार आयोग नही थी। फिर भी हम भारतीय बेहद आशावादी है। हर चीज में अच्छाई ढूंढ ही लेते है। इसे ही जीवन जीने की कला कहते है, बिना किसी अधिकार के।

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