वक्कलि नामक एक युवा विद्वान भगवान बुद्ध की ख्याति से प्रभावित होकर उनके आश्रम में पहुंचा। तथागत के सुंदर, तेजस्वी शरीर, अनुपम सौंदर्य तथा दिव्यवाणी ने उस भावुक जिज्ञासु को सहज ही प्रेमपाश में जकड़ लिया। कुछ ही क्षणों में उसे लगा कि उनके दर्शन-सत्संग से उसका हृदय, मन-मस्तिष्क अनूठी ऊर्जा से प्रकाशमान हो उठे हैं। वह खुशी-खुशी घर लौटा। एक दिन माता-पिता से विदा लेकर उसने हमेशा के लिए बुद्ध का शिष्यत्व ग्रहण कर लिया। अन्य भिक्षुओं ने देखा कि वक्कलि रस लोलुप भंवरे की तरह तथागत की रूप-माधुरी के चारों ओर मंडराने को लालायित रहता है।
अध्ययन, ध्यान, साधना आदि से भी वह पूरी तरह विमुख होता जा रहा है। भगवान बुद्ध ने भी स्वयं अनुभव कर लिया कि वक्कलि अंधा बनकर धर्म के सत्य स्वरूप से वंचित हो रहा है। एक दिन एकांत में तथागत ने उसे फटकारते हुए कहा, अरे नादान भिक्षु, मेरी इस रूप-माधुरी को अपलक देखकर अपना अमूल्य समय क्यों व्यर्थ करने में लगा है? मेरी इस रूप-काया में क्या रखा है? यह काया भीतर से उतनी ही गंदी है, जितनी प्रत्येक मनुष्य की होती है। रूप पर रीझना मूर्खता के सिवा कुछ नहीं है। भगवान बुद्ध ने कहा कि यदि मुझसे प्रभावित है, तो मेरे शरीर को नहीं, मेरी भीतर समाए धर्म को देख। जो धर्म को देखने का जिज्ञासु है, वही मेरे सच्चे स्वरूप को देख सकता है
यो खो धम्मं पस्सति, सोम मम पस्सति
भगवान के चंद सब्दों ने ही वक्कलि की आंखें खोल दीं और उसने विपश्यना-ध्यान में पारंगत होकर जीवन सार्थक बनाया।