भारत के एजुकेशन सिस्टम को बदलते ज़माने के अनुकूल होने की सख्त जरूरत: अतुल मलिकराम
भारत के एजुकेशन सिस्टम को बदलते ज़माने के अनुकूल होने की सख्त जरूरत: अतुल मलिकराम
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प्रगतिशील देशों को एक साथ काम करने के लिए प्रगतिशील दिमाग की आवश्यकता है। जिसके लिए देशों को मानव मन की क्षमताओं को उजागर करने की जररूत है, और इन्हें उजागर करने का शिक्षा या एजुकेशन से बेहतर माध्यम मेरे ज़हन में कभी भी नहीं आता है। इंडिया में एजुकेशन सिस्टम वैदिक काल से चला आ रहा है, जब गुरुकुल या पाठशालाएँ, गुरुजनों की उपस्थिति में प्राकृतिक वातावरण में हुआ करता था। घर-परिवार और दुनियादारी से दूर बच्चे गुरुजनों के मार्गदर्शन में इन राष्ट्रीय स्तर के गुरुकुलों में लम्बा वक़्त बिताकर तमाम विद्या अर्जित कर लेते है। देश में सबके लिए समान शिक्षा समय के पन्नों में कहीं दबकर रह गई है। यह बात और है कि समय के साथ इसमें कई महत्वपूर्ण परिवर्तन देखने के लिए मिले है। 

आज के समय के कॉम्पिटिशन को देखते हुए सरकारी अधिकारियों ने एजुकेशन के महत्त्व और इसके माध्यम से लोगों के जीवन में काफी हद तक सुधार की पुष्टि हो चुकी है, इस प्रकार सभी के लिए शिक्षा को एक लक्ष्य का एलान भी किया जा चुका है। हालाँकि, हम इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इंडिया गवर्नमेंट और संस्थान, मौजूदा शिक्षा मॉडल में सुधार के लिए निरंतर काम कर रहे हैं, फिर भी कई मुद्दे ऐसे हैं, जिनसे हम अभी-भी जूझ रहे हैं।

बता दें कि वर्तमान में विभिन्न एजुकेशन बोर्ड्स के पाठ्यक्रमों में विविधता भी सिस्टम में एक बड़ी समस्या बनती जा रही है। इंडियन एजुकेशन सिस्टम में, स्कूल्स विभिन्न बोर्ड्स से एफिलिएट होते हैं, जो स्टूडेंट्स की संभावनाओं में फेरबदल कर रहे है। असमान पाठ्यक्रम और विषय, स्टूडेंट्स के सामने कई बार विराम बनकर खड़े हो जाते हैं, खासकर जब वे राष्ट्रीय स्तर की प्रवेश परीक्षाओं, जैसे- कैट, जेईई मेन्स, पीएमटी आदि में हिस्सा ले रहे है। शिक्षकों और अधिकारियों को तत्काल जरुरत है कि वे पाठ्यक्रम के लिए एक सामान्य रेग्युलेटरी फ्रेमवर्क स्थापित करें, जिसका पालन प्रत्येक एजुकेशन बोर्ड द्वारा किया जाना चाहिए, ताकि स्टूडेंट्स को समान अवसर और लर्निंग एक्सपीरियंसेस प्राप्त करने में भी सहायता हासिल हो सके।

बेशक हम वक़्त के पहियों के साथ आगे तो बढ़े हैं, लेकिन हम अभी-भी कुछ पुरानी आदतों को अपने स्थान से हिला नहीं पाए है। रटकर सीखना उनमें से एक है। इसका सबब यह है कि स्टूडेंट उस पाठ विशेष को याद तो रख ही लेते है, लेकिन उसके पीछे के आधार से कोसों दूर चला जाता है। इसलिए, स्कूल्स और कॉलेजेस द्वारा वैचारिक शिक्षा या कॉन्सेप्चुअल लर्निंग को बढ़ावा देने की सख्त जरुरत है, ताकि स्टूडेंट्स संबंधित कॉन्सेप्ट्स को ठीक प्रकार समझ सकें और व्यावहारिक विश्व में उनका बेहतरी से इस्तेमाल कर सकते है। वहीं, इन्हें लर्निंग एक्सपीरियंस के दायरे को सीमित करने से स्टूडेंट्स की वृद्धि पर भी बुरा प्रभाव भी पड़ने लगा है। इसलिए, स्टूडेंट्स को बचपन से ही विभिन्न विषयों और वोकेशनल ट्रेनिंग से परिचित कराया जाना जरुरी है। इससे उन्हें अपनी क्षमता की पहचान करने और उन्हें बेहतर तरीके से विकसित करने में सहायता मिलने वाली है।

साथ ही एडवाइज़री बोर्ड्स को प्राइवेट कम्पनीज़ और इंस्टिट्यूशंस की भागीदारी पर विचार करना चाहिए। स्कूली शिक्षा की पहुँच बढ़ाने और लर्निंग आउटकम्स में सुधार करने में सहायता के लिए प्राइवेट सेक्टर की भागीदारी बहुत ही मायने रखती है। यह आगे चलकर इस क्षेत्र की आर्थिक स्थिति सुधारने और पर्याप्त क्षमता की कमी वाले सरकारी इंस्टिट्यूट्स का बेहतरीन पूरक बन सकती है। भारत में एजुकेशन की भारी माँग है और इसकी आपूर्ति करने के लिए प्राइवेट सेक्टर को बढ़ावा देना वक़्त की मांग है।  अब समय आ गया है कि हम एक देश के रूप में, एजुकेशन को उस उच्च स्तर पर ले जाना शुरू करें, जिसके दम पर कल के युवा विश्व में बढ़ते कॉम्पिटिशन का हिस्सा बन सकें और भारत को भी इस दौड़ में शामिल कर विजयी बना सकें।

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