धुंडिराज गोविन्द फालके उपाख्य दादासाहब फालके वह महापुरुष हैं जिन्हें भारतीय फिल्म उद्योग का "पितामह" कहा जाता है. दादा साहब फालके, सर जे. जे. स्कूल ऑफ आर्ट से प्रशिक्षित सृजनशील कलाकार थे. वह मंच के अनुभवी अभिनेता थे, शौकिया जादूगर थे. कला भवन बड़ौदा से फोटोग्राफी का एक पाठ्यक्रम भी किया था.
उन्होंने फोटो केमिकल प्रिंटिंग की प्रक्रिया में भी प्रयोग किये थे. प्रिंटिंग के जिस कारोबार में वह लगे हुए थे, 1910 में उनके एक साझेदार ने उससे अपना आर्थिक सहयोग वापस ले लिया. उस समय इनकी उम्र 40 वर्ष की थी, कारोबार में हुई हानि से उनका स्वभाव चिड़िचड़ा हो गया था.
उन्होंने क्रिसमस के अवसर पर "ईसामसीह" पर बनी एक फिल्म देखी. फिल्म देखने के दौरान ही फालके ने निर्णय कर लिया कि उनकी जिंदगी का मकसद फिल्मकार बनना है. उन्हें लगा कि रामायण और महाभारत जैसे पौराणिक महाकाव्यों से फिल्मों के लिए अच्छी कहानियां मिलेंगी.
जीवन परिचय -
दादासाहब फालके का पूरा नाम धुंडीराज गोविन्द फालके है और इनका जन्म महाराष्ट्र के नाशिक शहर से लगभग 20-25 किमी की दूरी पर स्थित बाबा भोलेनाथ की नगरी त्र्यंबकेश्वर (यहाँ प्रसिद्ध शिवलिंगों में से एक स्थित भी है) में 30 अप्रैल 1870 ई. को हुआ था. इनके पिता संस्कृत के प्रकांड पंडित थे और मुम्बई के एलफिंस्तन कालेज में प्राध्यापक थे.
इस कारण दादासाहब की शिक्षा-दीक्षा मुम्बई में ही हुई. 25 दिसम्बर 1891 की बात है, मुम्बई में "अमेरिका-इंडिया थिएटर" में एक विदेशी मूक चलचित्र "लाइफ आफ क्राइस्ट" दिखाया जा रहा था और दादासाहब भी यह चलचित्र देख रहे थे.
चलचित्र देखते समय दादासाहब को प्रभु ईसामसीह के स्थान पर कृष्ण, राम, समर्थ गुरु रामदास, शिवाजी, संत तुकाराम इत्यादि महान विभूतियाँ दिखाई दे रही थीं. उन्होंने सोचा क्यों नहीं चलचित्र के माध्यम से भारतीय महान विभूतियों के चरित्र को चित्रित किया जाए.
उन्होंने इस चलचित्र को कई बार देखा और फिर क्या, उनके हृदय में चलचित्र-निर्माण का अंकुर फूट पड़ा. आज फिल्म इंडस्ट्रीज में इन्ही के नाम से बॉलीवुड का सर्वश्रेष्ठ पुरूस्कार दिया जाता है. उनके पास सभी तरह का हुनर था. वह नए-नए प्रयोग करते थे.
अतः प्रशिक्षण का लाभ उठाकर और अपनी स्वभावगत प्रकृति के चलते प्रथम भारतीय चलचित्र बनाने का असंभव कार्य करने वाले वह पहले व्यक्ति बने. फरवरी 1912 में, फिल्म प्रोडक्शन में एक क्रैश-कोर्स करने के लिए वह इंग्लैण्ड गए और एक सप्ताह तक सेसिल हेपवर्थ के अधीन काम सीखा.
कैबाउर्न ने विलियमसन कैमरा, एक फिल्म परफोरेटर, प्रोसेसिंग और प्रिंटिंग मशीन जैसे यंत्रों तथा कच्चा माल का चुनाव करने में मदद की. इन्होंने "राजा हरिशचंद्र" बनायी. चूंकि उस दौर में उनके सामने कोई और मानक नहीं थे, अतः सब कामचलाऊ व्यवस्था उन्हें स्वयं करनी पड़ी.
अभिनय करना सिखाना पड़ा, दृश्य लिखने पड़े, फोटोग्राफी करनी पड़ी और फिल्म प्रोजेक्शन के काम भी करने पड़े. महिला कलाकार उपलब्ध न होने के कारण उनकी सभी नायिकाएं पुरुष कलाकार थे. होटल का एक पुरुष रसोइया सालुंके ने भारतीय फिल्म की पहली नायिका की भूमिका की.
शुरू में शूटिंग दादर के एक स्टूडियो में सेट बनाकर की गई. सभी शूटिंग दिन की रोशनी में की गई क्योंकि वह एक्सपोज्ड फुटेज को रात में डेवलप करते थे और प्रिंट करते थे. छह माह में 3700 फीट की लंबी फिल्म तैयार हुई. 21 अप्रैल 1913 को ओलम्पिया सिनेमा हॉल में यह रिलीज की गई.
पश्चिमी फिल्म के नकचढ़े दर्शकों ने ही नहीं, बल्कि प्रेस ने भी इसकी उपेक्षा की. लेकिन फालके जानते थे कि वे आम जनता के लिए अपनी फिल्म बना रहे हैं, अतः यह फिल्म जबरदस्त हिट रही. फालके के फिल्मनिर्मिती के प्रयास तथा पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र के निर्माण पर मराठी में एक फिचर फिल्म "हरिश्चंद्राची फॅक्टरी" 2009 में बनी, जिसे देश विदेश में सराहा गया.
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