भारत के इस शहर में जलाए नहीं, दफनाए जाते हैं हिंदुओं के शव
भारत के इस शहर में जलाए नहीं, दफनाए जाते हैं हिंदुओं के शव
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भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर में एक अनोखी परम्परा का पालन पिछले 86 वर्षों से किया जा रहा है। सुनने में थोड़ा अजीब लगता है, लेकिन यहां पिछले 86 सालों से हिंदुओं को कब्रिस्तान में दफनाया जा रहा है। जहाँ 86 साल पहले कानपुर में हिन्दुओं का एक कब्रिस्तान था वही अब ये बढ़ कर 7 हो चुके है। आखिर क्यों यहां खोदी जाती हैं हिंदुओं की कब्रें, आइए जानते है इसके पिछे की कहानी –

कानपुर में हिन्दुओं का प्रथम कब्रिस्तान 1930 में बना। इसकी शुरुआत अंग्रेजों ने की थी। वर्तमान में यह कब्रिस्तान कानपुर के कोकाकोला चौराहा रेलवे क्रॉसिंग के बगल में है और अच्युतानंद महाराज कब्रिस्तान के नाम से जाना जाता है।

फतेहपुर जनपद के सौरिख गांव के रहने वाले स्वामी अच्युतानंद दलित वर्ग के बड़े रहनुमा थे। कानपुर प्रवास के दौरान साल 1930 में स्वामी जी एक दलित वर्ग के बच्चे के अंतिम संस्कार में शामिल होने भैरव घाट गए थे। वहां अंतिम संस्कार के समय पण्डे बच्चे के परिवार की पहुंच से बड़ी दक्षिणा की मांग रहे थे। इस बात को लेकर अच्युतानंद की पण्डों से बहस भी हुई। इस पर पण्डों ने उस बच्चे का अंतिम संस्कार करने से मना कर दिया। पण्डों की बदसलूकी से नाराज अच्युतानंद महाराज ने उस दलित बच्चे का अंतिम संस्कार खुद विधि-विधान के साथ पूरा किया। उन्होंने बच्चे की बॉडी को गंगा में प्रवाहित कर दिया।

स्वामी जी यहीं नहीं थमे। उन्होंने दलित वर्ग के बच्चों के लिए शहर में कब्रिस्तान बनाने की ठान ली। इसके लिए उन्हें जमीन की जरूरत थी। उन्होंने अपनी बात अंग्रेज अफसरों के सामने रखी। अंग्रेजों ने बिना किसी हिचक के कब्रगाह के लिए जमीन दे दी। तभी से इस कब्रिस्तान में हिंदुओं को दफनाया जा रहा है। 1932 में अच्युतानंद जी की मृत्यु के बाद उनके पार्थिव शारीर को भी इसी कब्रिस्तान में दफनाया गया।

इस हिंदू कब्रिस्तान की प्रथा दलितों के बच्चों की कब्रों से शुरू हुई थी। अब यहां हिंदुओं की किसी भी जाति के शव दफनाए जा सकते हैं।  बीते सालों में यह कब्रिस्तान सिर्फ बच्चों तक सीमित नहीं है। अब यहां हर उम्र और जाति के शवों को भूमिप्रवाहित किया जाता है।

भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर में एक अनोखी परम्परा का पालन पिछले 86 वर्षों से किया जा रहा है। सुनने में थोड़ा अजीब लगता है, लेकिन यहां पिछले 86 सालों से हिंदुओं को कब्रिस्तान में दफनाया जा रहा है। जहाँ 86 साल पहले कानपुर में हिन्दुओं का एक कब्रिस्तान था वही अब ये बढ़ कर 7 हो चुके है। आखिर क्यों यहां खोदी जाती हैं हिंदुओं की कब्रें, आइए जानते है इसके पिछे की कहानी –

कानपुर में हिन्दुओं का प्रथम कब्रिस्तान 1930 में बना। इसकी शुरुआत अंग्रेजों ने की थी। वर्तमान में यह कब्रिस्तान कानपुर के कोकाकोला चौराहा रेलवे क्रॉसिंग के बगल में है और अच्युतानंद महाराज कब्रिस्तान के नाम से जाना जाता है।

फतेहपुर जनपद के सौरिख गांव के रहने वाले स्वामी अच्युतानंद दलित वर्ग के बड़े रहनुमा थे। कानपुर प्रवास के दौरान साल 1930 में स्वामी जी एक दलित वर्ग के बच्चे के अंतिम संस्कार में शामिल होने भैरव घाट गए थे। वहां अंतिम संस्कार के समय पण्डे बच्चे के परिवार की पहुंच से बड़ी दक्षिणा की मांग रहे थे। इस बात को लेकर अच्युतानंद की पण्डों से बहस भी हुई। इस पर पण्डों ने उस बच्चे का अंतिम संस्कार करने से मना कर दिया। पण्डों की बदसलूकी से नाराज अच्युतानंद महाराज ने उस दलित बच्चे का अंतिम संस्कार खुद विधि-विधान के साथ पूरा किया। उन्होंने बच्चे की बॉडी को गंगा में प्रवाहित कर दिया।

स्वामी जी यहीं नहीं थमे। उन्होंने दलित वर्ग के बच्चों के लिए शहर में कब्रिस्तान बनाने की ठान ली। इसके लिए उन्हें जमीन की जरूरत थी। उन्होंने अपनी बात अंग्रेज अफसरों के सामने रखी। अंग्रेजों ने बिना किसी हिचक के कब्रगाह के लिए जमीन दे दी। तभी से इस कब्रिस्तान में हिंदुओं को दफनाया जा रहा है। 1932 में अच्युतानंद जी की मृत्यु के बाद उनके पार्थिव शारीर को भी इसी कब्रिस्तान में दफनाया गया।

इस हिंदू कब्रिस्तान की प्रथा दलितों के बच्चों की कब्रों से शुरू हुई थी। अब यहां हिंदुओं की किसी भी जाति के शव दफनाए जा सकते हैं।  बीते सालों में यह कब्रिस्तान सिर्फ बच्चों तक सीमित नहीं है। अब यहां हर उम्र और जाति के शवों को भूमिप्रवाहित किया जाता है।

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