ज्योतिष विकास यात्रा में बाधाओं की बढ़ती भूमिका
ज्योतिष विकास यात्रा में बाधाओं की बढ़ती भूमिका
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ज्योतिष शास्त्र की सबसे बड़ी विडंबना ये है कि इसमें शोध कार्य अपनी न्यूनतम सीमा तक पहुंच चुका है। इस विषय पर ज्यादातर शोध 13वीं-14वीं शताब्दी तक हुए। इसके पश्चात केवल इनकी टीकाएं और टिप्पणियां लिखी गयीं और अनुवादित कार्य हुए। एक और महत्वपूर्ण तथ्य इससे संबंधित ये है कि तेरहवीं शताब्दी के बाद ज्योतिष पर उत्तर भारत में काम काफी कम हुआ जबकि दक्षिण भारत, जो मुस्लिम आक्रमण से अभी भी काफी हद तक अछूता था, वहां शोध और टीकाओं पर काम जारी रहा। 

वस्तुतः नए विचार समन्वय की अपेक्षा रखते हैं। नए शोध अक्सर गहरी दृष्टि के बाद ही संभव होते हैं। किंतु झंझावातों के दौरान समन्वय और गहरी दृष्टि के अवसर खत्म से हो जाते हैं तथा जहां प्राण रक्षा के लाले पड़े हों, भय का वातावरण हो, वहां शोध के अवसर कहां। ऐसे में ज्योतिष शास्त्र के साथ बड़ा ही अन्याय हो गया। फलस्वरूप जिस शास्त्र के अद्भुत लाभ हों, उसके लिए एक अलग ही धारा ही चल निकली। आमजन जो ज्योतिष के गणितीय पक्ष को नहीं जानता है, वह इस आधे-अधूरे मन से विश्वास करने लगा। कुछ ऐसे भी लोग रहे जो इस महान शास्त्र को मूर्ख बनाने का अस्त्र कहकर प्रचारित करने लगे। ऐसे में मुश्किल तो बढ़ ही गयी। इसे विज्ञान तक मानने से इंकार किया जाने लगा। कथित प्रगतिवादी बिना तथ्यों की जांच किए इससे किनारा कसने लगे। इसका एक बड़ा नुकसान ये हुआ कि इस शास्त्र के विकास के लिए प्रतिभाओं की कमी होने लगी। सरकारी पक्ष की उदासीनता की वजह से शोध और विकास की यात्रा मंद से मंदतर होती चली गयी और एक ऐसे विज्ञान से जनता वंचित रह गयी जिसका उनके जीवन की समस्याओं को कम करने में खासा लाभ उठाया जा सकता है।

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