आज़ाद जो देखन मैं चला, आज़ाद ना मिलिया कोय
आज़ाद जो देखन मैं चला, आज़ाद ना मिलिया कोय
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बचपन से एक जुमला सुनता आ रहा हूँ "हम आज़ाद देश के आज़ाद नागरिक हैं" | हमारे एक 'सर' ने यानि गुरूजी ने एक दिन आज़ादी का मतलब हमें दिल-दिमाग खोलकर समझाया था | उन्होंने कहा था कि देश की आज़ादी अलग होती है और व्यक्ति की आज़ादी अलग ही चीज है | उन्होंने आज़ादी, स्वतंत्रता, स्वाधीनता और स्वछंदता में अंतर भी बारीकी से बताया था | उन्होंने जो कुछ समझाया था वह सब बताऊंगा, तो आप कहेंगे कि बोर कर रहा है | देश की आज़ादी के बारे में आप व मैं जो जानते है, वह सब तो ठीक ही है; पर उसमें रहने वाले कितने व्यक्ति, कितने आज़ाद हैं ? यह सवाल मुझे जरूर रहस्यमय लगा | तो मैंने तय किया कि सर ने जैसा बताया हैं वैसे आज़ाद व्यक्ति को ढूंढा जाये | तो मेरी खोज शुरू हुई - 'आज़ाद' देखन मैं चला’ | सर ने बताया था कि "आज़ाद या स्वाधीन वह होता है, जो केवल खुद के अधीन हो, यानि अपने विवेक से सोच-समझ कर, उसे जैसा सही लगे, वैसा कह सके और कर सके" | मैं उन दिनों एक गांव में था और देश में आम-चुनाव होने वाले थे | तो मैंने सोचा यह अपनी खोज के लिये अच्छा मौका है |

मैंने सबसे पहले गांव की कुछ महिलाओं से पूछा राधा से, रेशमा से, जितली से, सिमरन से कि आप अपना वोट देना कैसे तय करते हो ? तो मुझे 10 में से 3 ने कहा कि वोट देने का काम उनका नहीं है, उनको अपने घर-बच्चों, मजूरी व काम-काज से फुर्सत ही कहाँ है | दूसरी 3 ने कहा कि वे इस झंझट में ज्यादा नहीं पड़ती, जो घर के मरद लोग बता देते हैं, उस निशान का बटन दबा देती हैं | एक ने कहा कि उस समय जिसका नाम, निशान और फोटु अच्छा लगता हैं उसको दे देती हैं |

एक ने कहा कि जो हमारी बिरादरी और धरम का होता हैं, उसको ही देते हैं | एक का कहना था कि प्रचार-प्रसार और नारे-भाषण से जिसका पलड़ा भारी लगता हैं, उसीको वोट देती हैं और तर्क भी दिया कि हारने वाले को वोट देकर वोट बेकार थोड़ी करना हैं | एक महिला जो पढ़ी-लिखी समझदार लगी, उसने कहा कि वे देश में कौन नेता पॉपुलर हो रहा हैं और किस पार्टी का जोर हैं, यह देखकर वोट देती हैं | मैंने पूछा कि क्या वे उम्मीदवार के बारे में जानकारी लेती हैं, तो उल्टा मुझसे पूछने लगी 'इतना टाइम किसको हैं ?' इस कवायद के बाद मैं सोच में पढ़ गया कि इसमें से क्या कोई आज़ाद हैं ? अब मैंने सोचा शायद मर्दों में से जरूर कुछ आज़ाद मिलेंगे और शायद शहर की महिलाओं में भी कुछ आज़ाद मिल जाये | अब मैं कई लोगों से कई तरह के सवाल पूछने लगा |

चलिये, पहले वोट देने के सर्वे का किस्सा ही पूरा करते हैं| मैंने गांव के ही रामदास से, गुलाम मोहम्मद से, देवा भील से, जोजफ से पूछा तो भी जवाब अधिक अलग नहीं मिले | बस एकाध व्यक्ति कुछ इधर मिला, कुछ उधर | अंतर यही था कि जिन मर्दों की औरतें उनके कहने से वोट देती हैं, वे मर्द अपने-अपने मालिक के या गांव के चौधरी के या अपने कथित गुरु महाराज के कहने से वोट देते हैं और घरवालियों से भी दिलवाते हैं | कुछ औरतें नाम-निशान-फोटु देखकर तय करती हैं, तो कई आदमी भी ऐसा ही करते हैं और कुछ सोचते हैं कि मुफ्त की दारू या अन्य चीजें मिले तो जो देनेवाला बताये वह बटन दबाने में अपना क्या जाता है | धरम और बिरादरी से पार्टियों को या उम्मीदवारों को जोड़ने वाले, फिर केवल इसीलिए खुद को भी उनसे जोड़ने वाले बहुत लोग मिले | ऐसे VIP फन्ने खां भी मिले जो यह मानते हैं कि 'वोट देने जाना फुर्सती लोगों का काम है' | मेरी इस खोज या अनौपचारिक सर्वे में मैंने शहरी शिक्षित पुरुषों और कामकाजी महिलाओं में भी सर के बताये हुए 'आज़ाद व्यक्ति' को ढूंढने की कोशिश की | उसके बाद कितने लोगों से मैंने पुछताछ की, उसका हिसाब मैं नहीं रख पाया |

जब मेरे सर्वेक्षित लोगों की संख्या काफी बढ़ गयी, तो मुझे कुछ वास्तव में जागरूक नागरिक भी मिले, जिनमें शहरी भी थे, ग्रामीण भी और पुरुष भी थे महिला भी | सौ के करीब लोगों में से मुझे 8-10 लोग ऐसे मिले होंगे, जो उम्मीदवार व पार्टी के बारे में जानकारी लेकर स्व-विवेक से सोच-समझकर वोट देते हैं | मुझे लगा कि चलो कुछ तो आज़ाद लोग मिले, पर जब मैंने उनसे कुछ और बात की तो मेरी ख़ुशी पर पानी फिर गया | दरअसल, थोड़ी सी बात में ही यह मालूम पड़ गया कि वोट देने के मामले में तो ये लोग काफी जागरूक हैं | लेकिन अन्य कई मामलों में वे आज़ाद नहीं हैं | जैसे उनमें से कुछ ने बताया कि आर्थिक समस्याओं या तंगी के कारण वह अपनी व अपने बच्चों कि कई इच्छाएं पूरी नहीं कर पाते है |

कोई तो आर्थिक कारण से ही अपनी मनचाही पढाई पूरी नहीं कर पाया था; कोई मनचाहा करियर नहीं अपना सका था, कोई बिजनेस नहीं कर सका था, किसीको मनपसंद जीवनसाथी का विचार छोड़ना पड़ा था | कुछ तो बोले कि परिवार के बड़े-बुजुर्ग या अन्य लोग दकियानूसी या अंध-विश्वासी हैं, इसलिए उनके दबाव में उन्हें शकुन-अपशकुन, कुंडली-ज्योतिष, पूजा-कीर्तन जैसी चीजों में अनचाहे ही समय, शक्ति व धन खर्च करना पड़ता हैं और कई अच्छी बातों से वंचित होना पड़ता हैं | कुछ लोग जात-बिरादरी, धर्म-सम्प्रदाय से हटकर कुछ करना चाहे तो वे नहीं कर पाते हैं, इसलिए एक तरह की गुलामी महसूस करते हैं | कुछ महिलाएं पतिदेव के सामने गमछे से बंधी गाय जैसी गुलाम हैं | इसके विपरीत कुछ पुरुष, गृह-स्वामिनी पत्नी की सामने 'जोरू के गुलाम' हैं | कही बहु, सास के सामने, कही सास, बहु के सामने, कही छोटा भाई बड़े के सामने, कहीं कर्मचारी बॉस के सामने, कही बच्चे माँ-बाप के सामने, कही बुजुर्ग माँ-बाप बेटे-बहु के सामने, कहीं दुकानदार-व्यापारी गुंडे - दबंगों के सामने, कहीं आम आदमी पुलिस, नेता या अफसर के सामने घिघियाते है या हाथ-पैर जोड़ते हैं | गुलामी के कई आयाम हैं और कई रूप |

बेचारी आज़ादी तो बस एक ही रूप की होती है; जो कि किताबों में और मेरे सर जैसे विद्वानों की बातों के आलावा जमीन पर तो कहीं दिखाई ही नहीं देती | थक-हार कर मैंने सोचा कि मैं किसी न किसी प्रकार से कमजोर लोगों में आज़ाद व्यक्ति को ढूंढ रहा हूँ; इसलिए वह नहीं मिल रहा है; इसलिए ताकतवर लोगों में उसे ढूँढना चाहिये | तो सोच कि, देश के सर्वोच्च पद वाले व्यक्ति यानि राष्ट्रपति तो जरूर आज़ाद होंगे | पर मैंने पाया कि जिन किताबों में उन्हें भारत-सरकार का शीर्ष-पुरुष और तीनों सेनाओं का कमांडर कहा गया है; उन्हीं किताबों में उन्हें व्यवहार में सरकार का मात्र रबर-स्टैम्प भी बताया गया है, निर्णय तो असल में मंत्री-मंडल लेता है | तो राष्ट्रपति आज़ाद नहीं है, यह जानने के बाद, मैंने सोचा कि मंत्री-मंडल का प्रधान और सरकार का कार्यवाहक प्रधानमंत्री तो जरूर आज़ाद होता होगा |

ऐसा विचार करते-करते मेरी आँख लग गयी और उसी दौरान सपने में मेरी प्रधान-मंत्री से भेंट हो गयी | PM बोले, "तुम आज़ाद व्यक्ति को ढूंढ रहे हो और यह समझ रहे हो कि मैं आज़ाद हूँ | लोग तो दो-चार बंधनों से बंधे होते है; पर मेरे बंधनों की संख्या की गिनती तो मैं भी नहीं कर सकता हूँ | ज्यादा जिम्मेदारियों वाला व्यक्ति अधिक बंधनों में होता है | मेरी स्थिति तो दो खम्बों के बीच तानी हुए रस्सी पर चलने वाले नट की तरह की है | जिसके कमर और हाथों से कई अन्य रस्सियाँ बंधी होती है | इनमें से किसी रस्सी का दूसरा सिरा संघ के ऑफिस में है, तो किसी रस्सी का दूसरा सिरा उदारवादियों या सबका साथ चाहने वालों ने भी पकड़ रखा है | कोई रस्सी अम्बानी-अडानी जैसे पूंजीपतियों के हाथ में है, कोई अन्य रस्सी अमेरिकन राष्ट्रपति के ऑफिस से आ रही है, कोई IMF के ऑफिस से तो कोई विश्व-बैंक के ऑफिस से; कुछ सिरे पार्टी के बुद्धिजीवियों ने, कुछ आर्थिक सलाहकारों ने तो कुछ सिरे किसान व गांव-लॉबी के लोगों ने भी पकड़ रखे हैं |

सब सहयोगी और विपक्षी दलों ने भी मुझे बांधने वाली रस्सियाँ पकड़ रखी है | सब अपनी-अपनी ताकत व इच्छानुसार मुझे खींचते रहते हैं और मुझे ऐसे बंधे-बंधे ही उस तनी हुई रस्सी पर चलना होता है | अरे मैं आज़ाद होता तो मेरी सरकार को कितने ही फैसले पलटना नहीं पड़ते | वो तो यह समझों की राजनीति में इतने समय रहते-रहते मैंने सब दबावों-खिंचावों के बीच संतुलन बनाकर 'विकास - विकास' मंत्र का जाप करते हुए जैसे-तैसे आगे बढ़ना और अपने साथ सरकार को भी चलाते रहना सीख लिया है | कई बार मुझे आज़ादी व दबंगता का दिखावा भी करना पड़ता है, मगर असली आज़ादी बहुत दूर की चीज है" | प्रधानमंत्री की बातें सुनकर जब मेरी नींद खुली, तो मुझे समझ में आ गया कि, भारत में तो क्या शायद, पूरी दुनिया में भी कोई पूरी तरह आज़ाद नहीं है |

सबके पास अपने बंधन हैं, अपनी आज़ादियाँ हैं | लेकिन हाँ दूसरे देशों में लोग बंधन कम रखकर आज़ादी ज्यादा जुटा लेते हैं | जबकि हमारे देश में लोग स्व-निर्मित बंधन भी अधिक बांध लेते हैं और शायद आज़ादी के बजाय बंधनो को ही अधिक अपना मानने लगते हैं | अब यारों, यहाँ तो बहुत सारे दार्शनिक प्रश्न और मुद्दे उठने लगे हैं | इसलिये, फ़िलहाल यहाँ बात बंद करके, मैं अपनी ओर से तो उन सब सवालों से आपको आज़ाद करता हूँ | हाँ, यदि आपमें से कोई उनमें से किसी प्रश्न को उठाकर कोई और शोध करना चाहे तो मैं आपको रोकने-टोकने वाला नहीं, आपका मददगार भी हो सकता हूँ | * हरिप्रकाश 'विसंत'

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