मैं मजदूर मुझे देवों की बस्ती से क्या!
मैं मजदूर मुझे देवों की बस्ती से क्या!
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नईदिल्ली। मैं मजदूर मुझे देवों की बस्ती से क्या लोकप्रिय हिंदी कविता की इस शुरूआती पंक्ति का भाव स्पष्टतौर पर यह दर्शाता है कि मजदूर जो दूसरों के लिए भव्य ईमारतें बनाता है। कुछ समय आधे - अधूरे तरीके से बनी उन इमारतों में रहता है लेकिन जब इमारतें पूरी हो जाती हैं तो फिर उसी कच्ची मिट्टी, इंट और पतरे से बने मकान में रहने लगता है। यू तो मजूदर को केवल इसी वर्ग से जाना जाता है।

मगर वर्तमान में ऐसा वर्ग जो प्रतिदिन मेहनत कर हर रोज़ का कुछ आर्थिक पारिश्रमिक प्राप्त करता है उसे मजदूर की तरह माना जाता है। इस वर्ग में वे लोग आते हैं जो दो जून की रोटी भी बमुश्किल ही कमा पाते हैं। प्रतिवर्ष अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 1 मई को मजदूर दिवस मनाया जाता है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है मजदूर दिवस। मगर इस दिन को मनाने के बाद भी मजदूर के हित की बात नहीं हो पाती।

यूं तो मजदूर दिवस की शुरूआत 1886 में शिकागो में हुई थी, जब मजदूरों ने काम की अवधि करीब 8 घंटे होने और सप्ताह में एक अवकाश होने की मांग की। इस मांग को लेकर मजदूरों ने हड़ताल की दी। हड़ताल के दौरान जब मजदूर एकत्रित हुए तो किसी अज्ञात ने बम फोड़ दिया। बम फटने से कुछ मजदूरों की मौत हो गई वहीं कुछ घायल हो गए। मजदूरों में अफरा - तफरी मच गई और वे आक्रोशित हो उठे।

बाद में पुलिस ने फायरिंग की और इसमें भी मजदूरों की मौत हो गई। दूसरी ओर कुछ पुलिसकर्मी भी मारे गए। वर्ष 1989 में पेरिस में अंतरराष्ट्रीय महासभा की द्वितीय बैठक में फ्रेंच क्रांति को याद करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया गया। जिसमें अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस के तौर पर मनाए जाने की पहल की गई। विश्व के कई राष्ट्रों ने 1 मई को मजदूर दिवस मनाए जाने और इस दिन अंतरराष्ट्रीय अवकाश की घोषणा की।

आज विभिन्न देशों में अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाया जाता है मजदूर दिवस मनाए जाने के बाद भी मजदूरों की हालत वैसी की वैसी ही है। हालात ये हैं कि देश के छोटे और बड़े शहरों में स्थापित सार्वजनिक क्षेत्रों की मीलें बंद हो चुकी है लेकिन आज भी मिल मजदूरों को उनका अधिकार नहीं मिल सका है। निजी क्षेत्र की कंपनियों में भी मजदूरों की हालत अधिक बेहतर नजर नहीं आता, हालांकि अब मजदूरों को कार्य की वर्तमान जगह पर सरकारी प्रयासों से ईएसआई के माध्यम से चिकित्सकीय बीमा और भविष्य निधि की सुविधा मिल जाती है लेकिन फैक्ट्रि बंद होने की दशा में मजदूरों की सुनवाई करने वाला कोई नहीं है।

महिला मजदूर और बाल मजदूर की समस्या तो पहले की ही तरह बनी हुई है। नियमों को ताक पर रखकर फैक्ट्रियों में बाल मजदूरी करवाई जाती है। इन सभी समस्याओं के बाद भी मजदूर दिवस पर मजदूर तालियां पीट - पीटकर नेताओं का स्वागत करने पर मजबूर रहते हैं। इस दिन के शोर शराबे से दूर मजदूर काम की तलाश में ही रहता है। अवकाश घोषित हो जाने के बाद भी उसे दो जून की रोटी की चिंता सताने लगती है।

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