पितृपक्ष हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण समय होता है, जिसमें पितरों (पूर्वजों) का श्राद्ध और तर्पण किया जाता है। यह समय भाद्रपद पूर्णिमा से अश्विन मास की प्रतिपदा तक चलता है तथा अमावस्या पर समाप्त होता है। इन 15 दिनों में अपने पितरों का श्राद्ध किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस अवधि में पितर पृथ्वी पर आते हैं, तृप्त होकर अपने कुल को आशीर्वाद देकर वापस जाते हैं। तर्पण कुतुप काल में करना श्रेष्ठ माना गया है, जो आमतौर पर सुबह 11 बजे से दोपहर 1 बजे तक का समय होता है।
तर्पण का समय (कुतुप काल)
तर्पण का सही समय कुतुप काल माना गया है। यह समय आमतौर पर दोपहर 11 बजे से 1 बजे तक होता है। इस समय किए गए तर्पण को सबसे श्रेष्ठ और प्रभावी माना जाता है। इसके पीछे यह मान्यता है कि इस समय सूर्य का प्रभाव अधिक होता है, जिससे पितरों को तर्पण शीघ्र प्राप्त होता है और वे तृप्त होते हैं।
तर्पण और श्राद्ध के लिए आवश्यक सामग्री
श्राद्ध और तर्पण के लिए कुछ विशेष सामग्री की आवश्यकता होती है, जिनका उपयोग पितरों को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है। ये सामग्री पवित्र मानी जाती हैं और इनके बिना तर्पण अधूरा माना जाता है। ये सामग्री इस प्रकार हैं:
तांबे का चौड़ा बर्तन: इसमें तर्पण का जल रखा जाता है।
जौ और तिल: तर्पण के समय जल में मिलाकर अर्पित किए जाते हैं।
चावल: पितरों के तर्पण के लिए उपयोग होता है।
गाय का कच्चा दूध: इसे पवित्र माना जाता है और तर्पण के लिए आवश्यक है।
गंगाजल: इसे तर्पण के जल में मिलाया जाता है।
सफेद फूल: सफेद फूल पितरों की शांति का प्रतीक होते हैं।
कुशा घास: इसे तर्पण के दौरान हाथ में रखा जाता है, जो अनुष्ठान को पूर्णता प्रदान करता है।
गाय के गोबर से बने कंडे: अग्यारी के लिए आवश्यक होते हैं।
घी: अग्यारी में चढ़ाने के लिए उपयोग होता है।
खीर, पूरी, गुड़: पितरों को भोग स्वरूप अर्पित किया जाता है।
तांबे का लोटा: इससे तर्पण के समय जल अर्पित किया जाता है।
श्राद्ध और तर्पण की विधि
श्राद्ध करने वाले व्यक्ति को सूर्योदय से पहले उठना चाहिए और स्नान करके शुद्ध हो जाना चाहिए। इसके बाद पितरों का ध्यान किया जाता है और पूरे अनुष्ठान की शुरुआत की जाती है। श्राद्ध के दिन विशेष ध्यान रखा जाता है कि तर्पण के बाद ही कुछ खाया जाए, और सबसे पहले योग्य ब्राह्मण को भोजन कराया जाए।
तर्पण के लिए तांबे के बर्तन में जौ, तिल, चावल, गाय का कच्चा दूध, गंगाजल, सफेद फूल और पानी मिलाकर रखा जाता है। फिर तांबे के लोटे में जल भरकर व्यक्ति दक्षिण दिशा की ओर मुंह करके घुटनों के बल बैठता है। हाथ में कुशा घास लेकर दाहिने हाथ के अंगूठे से 11 बार जल अर्पित किया जाता है। इस प्रक्रिया के दौरान व्यक्ति को अपने पितरों का ध्यान करना चाहिए और उनकी शांति और तृप्ति की प्रार्थना करनी चाहिए।
अग्यारी और भोग की विधि
तर्पण के बाद अग्यारी दी जाती है, जिसमें गाय के गोबर से बने कंडे जलाए जाते हैं। इसमें खीर और पूरी का भोग अर्पित किया जाता है, जो पितरों को समर्पित होता है। इसके बाद अंगूठे से जल अर्पित किया जाता है। यह क्रिया पितरों को तृप्ति देने के लिए की जाती है, जिससे वे संतुष्ट होकर आशीर्वाद प्रदान करें।
अग्यारी और भोग के बाद जो भी खाना बनाया गया हो, उसका अंश पांच स्थानों पर देवताओं, गाय, कुत्ते, कौवे और चींटी के लिए निकाला जाता है। यह पितरों के साथ-साथ अन्य जीव-जंतुओं के प्रति भी सम्मान और कृतज्ञता प्रकट करने का तरीका है।
ब्राह्मण भोजन और दक्षिणा
तर्पण और भोग के बाद किसी योग्य ब्राह्मण को भोजन कराया जाता है। यह माना जाता है कि ब्राह्मण को भोजन कराने से पितरों की आत्मा को शांति मिलती है। ब्राह्मण को भोजन कराकर उसे दक्षिणा दी जाती है। दक्षिणा में वस्त्र, धन या अन्य सामग्रियां दी जा सकती हैं। इसके बाद ही श्राद्ध कर्म पूर्ण माना जाता है।
पितृपक्ष का समापन
पितृपक्ष का समापन अमावस्या के दिन होता है, जिसे सर्वपितृ अमावस्या कहा जाता है। इस दिन वे लोग भी तर्पण कर सकते हैं जिन्होंने किसी कारणवश पूरे पितृपक्ष में तर्पण नहीं किया हो। यह दिन उन सभी पितरों के लिए समर्पित होता है, जिनका श्राद्ध किसी विशेष तिथि को नहीं किया गया।
भाद्रपद पूर्णिमा पर आज रात करें ये एक काम, घर में होगी धनवर्षा
घर में इन जगहों पर भूलकर भी ना लगाएं पितरों की तस्वीर, बढ़ जाएंगी मुश्किलें
भाद्रपद पूर्णिमा पर बन रहे है शुभ संयोग, इन राशियों के शुरू होंगे अच्छे दिन