लेसकेश इकोनॉमी से बेईमानी व काला धन कैसे घटेगा ?
लेसकेश इकोनॉमी से बेईमानी व काला धन कैसे घटेगा ?
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केशलेस या लेसकॅश, क्या सही है ?

मोदी सरकार नोटबंदी के बाद से केशलेस अर्थ-व्यवस्था पर बहुत जोर दे रही है और उसके लिए बड़ी देश-व्यापी इनामी योजना भी घोषित की गयी है | वैसे इस मामले में 'केशलेस' शब्द अधिक प्रचलित हो गया है, लेकिन असल में किसी भी देश में बिना केश के 100% काम करना संभव नहीं है | हालाँकि स्वीडन व नार्वे जैसे कुछ देश अपनी इकोनॉमी को 92 से 95% तक बिना केश पेमेंट का बनाने में सफल हुए हैं | उन्हें मोटे तौर पर केशलेस  इकोनॉमी कहा जा सकता है | परंतु भारत जैसे देशो को उस स्तर तक पहुँचने के लिए लगभग 25-30 साल लगेंगे | इसलिए फिलहाल केशलेस की नहीं लेसकेश इकोनॉमी की ही बात होनी चाहिए | इसीलिए हमारे वित्त-मंत्री अरुण जेटली ने आज कहा कि हमारे लिए केश का आशय 'लेसकेश' ही है | प्रधानमंत्री मोदी ने भी इसी तरह की बात अपने कुछ भाषणों में की है | खैर, अभी मुख्य मुद्दा तो यह है कि सरकार लेसकेश के लिए यह सब कवायद क्यों कर रही है ? 

क्या सरकार ने अपना लक्ष्य बदला है ?

इस सन्दर्भ में विपक्षियों द्वारा सरकार की एक आलोचना यह भी हो रही है कि "इन्होंने पहले तो नोटबंदी की और उसे अपनी एक बड़ी मुहीम बताया; फिर जब उसमे जनता बहुत परेशान होने लगी तो ये अब लेसकेश की बात करने लगे | इस तरह सरकार ने अपने लक्ष्य बदल दिए |" परंतु, इसे निष्पक्षता से देखें तो समझ में आ जायेगा कि नोटबंदी और लेसकेश की बात एक दूसरे से किस प्रकार जुडी हुई है | असल में तो नकदी आधारित व्यवस्था से लेसकेश इकोनॉमी की ओर बढ़ना ही सरकार के अब तक के कई कदमों का मुख्य व दीर्घकालीन उद्देश्य है | नोटबंदी के तुरंत बाद केशलेस या लेसकेश की बात करना एक सोची-समझी हुई योजना है |

नोटबंदी से नकदी की कमी से जो समस्याएं पैदा हुई है, वे सभी सिमित समय की ही है | बड़ी एवं गंभीर तकलीफों वाली स्थितयां तो अब धीरे-धीरे कम होती हुई दिख ही रही है | इससे उत्पन्न आर्थिक मंदी एवं उद्योग -व्यापार - रोजगार में आई कमी भी कही एक साल में कही डेढ़ या दो साल में दूर हो जायेगी | परंतु, लेसकेश के लिए अगले दो-तीन दशक तक सरकार को प्रयास करते रहना पड़ेंगे और उसके लाभ भी उसी धीमी गति से लंबे समय में मिलेंगे | यानी नोटबंदी एक अल्पकालीन (short-term) घटना है जबकि लेसकेश एक दीर्घकालीन (long-term) चलने वाली व्यवस्था का नाम है | नोटबंदी से नकदी की तत्कालीन कमी हुई, उसी समय में लेसकेश की मुहीम को जोरशोर से उठाना गरम लोहे पर चोट मारने की समझदारी है | इसके पहले यदि सरकार इतना ही जोर देकर यह बात करती तो भी उसे इतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता और अभी जितनी तेजी से केशलेस लेनदेन के तरीकों को लोग अपना रहे हैं, उतनी तेज सफलता नहीं मिलती | इसलिए इस बात में विपक्षी दलों की 'लक्ष्य बदलने वाली' आलोचना में कोई दम नहीं है |

इससे बेईमानी कैसे घटेगी ? और क्या फायदे हैं ?

अब हम मूल प्रश्न पर लौटे कि सरकार इससे क्या चाहती है ? या वह जो कह रही है कि इसं तरह इमानदारी बढ़ेगी व बेईमानी घटेगी ? इसका क्या आधार है ? बात यह है कि नकदी या केश के लेनदेन और बिना केश के लेनदेन में फर्क यह है कि चूँकि नोटों पर लेने या देने वाले का नाम नहीं होता इसलिए केश से किये लेनदेन का रिकॉर्ड नहीं होता और उसे फिर से चेक नहीं किया जा सकता है; जबकि केशलेस लेनदेन या डिजिटल लेनदेन डिजिटली रिकॉर्ड हो जाता है, जिसे जरुरत पड़ने पर चेक किया जा सकता है | केशलेस के इस गुण के बहु-आयामी फायदे हैं | सबसे बड़ा फायदा यह है कि ऐसा लेनदेन छुपाया नहीं जा सकेगा और इस तरह कालेधन का उपयोग इसमे नहीं होगा | किसी से भी गैर-वाजिब 'दो नंबर में' कुछ नहीं लिया जा सकेगा और सरकार को सही-सही टेक्स देना पड़ेगा | अब आगे आप खुद भी समझ सकते है कि इससे देश को कितना फायदा होगा |

यहाँ सबसे ख़ास बात यही है कि जब लेनदेन छुपाया नहीं जा सकेगा तो स्वाभाविक है कि उससे इमानदारी से लेनदेन होगा और बेईमानी में कमी आएगी | इस बात के प्रत्यक्ष और ठोस प्रमाण है वे देश जिन्होंने इसे अपनाया है, जैसे स्वीडन, नार्वे, डेनमार्क, बेल्जियम, फ्रांस, यु.के., सोमालीलैंड, कनाडा आदि | ये सभी देश विश्व के स्वतंत्र संस्थानों द्वारा किये गए आकलनो के अनुसार 'इमानदारी स्तर' कि सूची में और 'वर्ल्ड हेप्पीनेस इंडेक्स' में भी ऊपर के क्रम में है | कुछ देश इसके बिना भी ऊँचे क्रम में हैं, जिसका मतलब यह है कि केवल यही उपाय इमानदारी को बढ़ाने के लिए काफी नहीं है, उसके पीछे एनी कुछ बातें भी होती है | परन्तु यह भी एक महत्वपूर्ण व कारगर उपाय है | 

क्या भारत लेसकेश हो सकता है ?

यह बिलकुल सही बात है कि भारत की आम जनता का लेसकेश को अपनाना बहुत कठिन है और इसमें बहुत समय लगेगा | परन्तु सच यह भी है कि शुरू में शहरी एवं शिक्षित लोगों द्वारा इसे तेजी से अपनाया जाएगा और एक-दो साल में ही करीब 35% ऐसे लोग इसे अपना लेंगे, लेकिन उसके बाद इसकी प्रगति धीमी हो जाएगी | हालाँकि, ये 35% लोग ऐसे है जो कि कुल लेनदेन का 50% से अधिक लेनदेन करते है | इसलिए दो साल में ही आधे से अधिक लेनदेन डिजिटल होने लगेगा | किन्तु फिर 70% तक पहुँचने में अगले 5 साल से भी अधिक लग जायेंगे, 90% तक या उससे अधिक में तो इससे भी दुगुना समय लगेगा | सोचना यह चाहिए कि कितना भी समय लगे, यह प्रक्रिया देश को सही दिशा में ले जाने वाली है | हम जैसे भी, जितने समय में भी, जितना भी आगे बढे, उतना ही अच्छा है |    

* हरिप्रकाश 'विसन्त'                       

      

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