विधायिका के आगे असहाय न्यायपालिका
विधायिका के आगे असहाय न्यायपालिका
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नई दिल्ली : विभिन्न राजनीतिक दलों में आपराधिक नेताओं की बढ़ती संख्या और दोषी करार दिए गए ऐसे नेताओं को संबंधित दलों में अगुआई का अधिकार और अहम पद दिए जाने को लेकर एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर कर ऐसे नेताओं पर रोक लगाने की मांग की गई. लेकिन केंद्र सरकार के नकारात्मक विचारों ने एक अच्छी पहल शुरू करने के मौके को गँवा दिया. बेहतर तो यही होता कि सरकार इस मामले में गंभीरता दिखाते हुए इस मामले में सकारात्मक कदम उठाती.

उल्लेखनीय है कि एडवोकेट अश्विनी कुमार उपाध्याय द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर जनहित याचिका में मांग की गई है कि दोषी करार दिए जा चुके लोगों की ओर से राजनीतिक दलों के गठन पर रोक लगाई जानी चाहिए. इस बारे में भारत के चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने भी दोषसिद्ध लोगों के राजनीतिक दलों के प्रमुख होने के औचित्य पर सवाल उठाया था.लेकिन केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के दखल के खिलाफ राय देते हुए कहा कि मौजूदा कानून में संशोधन के लिए कोर्ट की ओर से सरकार को बाध्य नहीं किया जा सकता. इसका आशय यही है कि जब तक सरकार नहीं चाहेगी, तब तक यह गलत परिपाटी चलती रहेगी.

बता दें कि इस मामले में केंद्र का तर्क था कि चुनाव आयोग के पास ऐसी शक्तियां नहीं है कि वो ऐसी किसी दल का पंजीयन रद्द कर दे जिसके प्रमुख राजनेता दोषी साबित हो चुके हैं. सरकार ने यह भी कहा कि चुनाव सुधार, लंबी और जटिल प्रक्रिया है.किसी भी संशोधन से पहले विधि आयोग की सिफारिश की जरूरत होती है.यही नहीं सरकार ने राजनीतिक दलों में पदाधिकारियों  के चुने जाने को उनकी स्वायत्तता के अधिकार का हिस्सा भी बता दिया. लब्बो लुबाब यह कि इस मामले में कोई अच्छा काम शुरू करने के लिए सरकार ने अपनी अरुचि प्रकट कर दी. जबकि होना यह चाहिए था कि सरकार दृढ इच्छा शक्ति का परिचय देते हुए साहस के साथ ऐसे गलत नियमों और परम्पराओं के खिलाफ कोई कदम उठाती. लेकिन अफ़सोस ऐसा नहीं हुआ और विधायिका के समक्ष न्यायपालिका एक बार फिर असहाय नजर आई .

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