गुरु ही आतंरिक सुख के प्रदाता
गुरु ही आतंरिक सुख के प्रदाता
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गुरु ही आतंरिक सुख के प्रदाता
विपरीत परिस्थितियों में होता है शिष्य का निर्माण
गुरु को समर्पित शिष्य बनता है कुंदन
परस्पर मिलकर हो सकता है वसुधैव कुटुम्बकम का स्वप्न साकार
शिष्यत्व की साधना में अहं का टूटना जरुरी

स्वामी नरेन्द्रानंद जी ने कहा कि परिस्थितियाँ एक शिष्य को पथ से भटकाने नहीं अपितु निखारने आती है, दृढ़ता से गुरु मार्ग पर चलाने आती है! क्योंकि गुरु शिष्य को वह परम अवस्था प्रदान करना चाहते है, जहाँ आनंद ही आनंद है, आतंरिक सुख का अनुभव है, जहाँ ईश्वर का परम धाम है! संत मीराबाई जी कहती है :-

जहाँ बैठावे तित ही बैठूँ, बेचे तो बिक जाऊँ|
मीरा के प्रभु गिरधारी नागर, बार-बार बलि जाऊँ|


कहने का भाव कि एक शिष्य तभी कुंदन बन सकता है जब उसने अपने आप को पूर्ण रूप से गुरु को अर्पित कर दिया है, जहाँ गुरु उसे ले कर चले वह दृढ़ता से बढ़े, जहाँ उसे रखे, जिस हाल में रखे वह संशय रहित हो, गुरु कार्य में अपना सहयोग दे, गुरु से केवल भक्ति माँगे, अध्यात्म मार्ग पर आगे बढ़ने की शक्ति माँगे, तभी एक शिष्य पूर्ण रूप से शिष्यत्व की कसौटी पर खरा उतर सकता है! पूर्ण गुरु कि छत्रछाया में संगठित हुए शिष्य ही विश्व को रोगमुक्त करने का सामर्थ्य रखते हैं| जब वे परस्पर मिलकर चलते हैं, तब ही ‘वसुधैव कुटुम्बकम’, ’विश्व-शांति’ जैसे स्वप्न साकार हो पाते हैं| श्रेष्ठ गुण प्राप्त करके सुंदर चरित्र निर्माण किया जा सकता है एवं इससे श्रेष्ठ समाज की स्थापना की जा सकती है|

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