जन्मदिन विशेष : गुलज़ार की ये कविताएं आपके मन को कर देंगी 'गुलज़ार'
जन्मदिन विशेष : गुलज़ार की ये कविताएं आपके मन को कर देंगी 'गुलज़ार'
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इंडस्ट्री में अपनी दिल छू लेने वाली कविताएं और गीतों के जरिए मशहूर हुए गुलज़ार आज अपना 84वां जन्मदिन मना रहे हैं. गुलज़ार को बचपन से ही लेखन का शौक था. उनकी हर कविता और गीत में एक अलग-सा नशा होता है जो सभी के दिलों को छू जाता है. गुलज़ार ने बतौर गीतकार अपने करियर की शुरुआत 60 के दशक में फिल्म 'बंदिनी' से की थी. उन्होंने अब तक हिंदी सिनेमा को एक से बढ़कर एक गीत दिए है. गुलज़ार का मुकाबला आज तक कोई नहीं कर पाया है. आपको ये बात जानकर हैरानी होगी कि गुलज़ार एक समय पर गेराज में कार मैकेनिक के तौर पर काम करते थे और अपने खाली समय में वो कविताएं लिखते थे. आज गुलज़ार के जन्मदिन के विशेष मौके पर हम आपके लिए उनकी अब तक कि सबसे खास कविताएं लेकर आए हैं-

देखो, आहिस्ता चलो!

देखो, आहिस्ता चलो, और भी आहिस्ता ज़रा,

देखना, सोच-सँभल कर ज़रा पाँव रखना,

ज़ोर से बज न उठे पैरों की आवाज़ कहीं.

काँच के ख़्वाब हैं बिखरे हुए तन्हाई में, 

ख़्वाब टूटे न कोई, जाग न जाये देखो,

जाग जायेगा कोई ख़्वाब तो मर जाएगा.

 

मौत तू एक कविता है!

मौत तू एक कविता है.

मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको,

डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे

ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुँचे

दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब

ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन

जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आए

मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको.

 

बोलिये सुरीली बोलियाँ

बोलिये सुरीली बोलियां,

खट्टी मीठी आँखों की रसीली बोलियां.

रात में घोले चाँद की मिश्री,

दिन के ग़म नमकीन लगते हैं.

नमकीन आँखों की नशीली बोलियां,

गूंज रहे हैं डूबते साए. 

शाम की खुशबू हाथ ना आए,

गूंजती आँखों की नशीली बोलियां.

ख़ुदा

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैंने

काले घर में सूरज रख के,

तुमने शायद सोचा था, मेरे सब मोहरे पिट जायेंगे,

मैंने एक चिराग़ जला कर,

अपना रस्ता खोल लिया.

तुमने एक समन्दर हाथ में ले कर, मुझ पर ठेल दिया.

मैंने नूह की कश्ती उसके ऊपर रख दी,

काल चला तुमने और मेरी जानिब देखा,

मैंने काल को तोड़ क़े लम्हा-लम्हा जीना सीख लिया.

मेरी ख़ुदी को तुमने चन्द चमत्कारों से मारना चाहा,

मेरे इक प्यादे ने तेरा चाँद का मोहरा मार लिया

मौत की शह दे कर तुमने समझा अब तो मात हुई,

मैंने जिस्म का ख़ोल उतार क़े सौंप दिया,

और रूह बचा ली,

पूरे-का-पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाज़ी.

अमलतास

खिड़की पिछवाड़े को खुलती तो नज़र आता था,

वो अमलतास का इक पेड़, ज़रा दूर, अकेला-सा खड़ा था,

शाखें पंखों की तरह खोले हुए.

एक परिन्दे की तरह,

बरगलाते थे उसे रोज़ परिन्दे आकर,

सब सुनाते थे वि परवाज़ के क़िस्से उसको,

और दिखाते थे उसे उड़ के, क़लाबाज़ियाँ खा के,

बदलियाँ छू के बताते थे, मज़े ठंडी हवा के!

आंधी का हाथ पकड़ कर शायद.

उसने कल उड़ने की कोशिश की थी,

औंधे मुँह बीच-सड़क आके गिरा है!!

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