सरकार दो हफ्ते में बताए कि इच्छा मृत्यु के संबंध में वो क्या सोचती है
सरकार दो हफ्ते में बताए कि इच्छा मृत्यु के संबंध में वो क्या सोचती है
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नई दिल्ली : इच्छा मृत्यु पर भारत में हमेशा से बहस चली आ रही है। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से इस संबंध में 15 दिनों में अपना रुख साफ करने को कहा है। सर्वोच्च अदालत ने कहा है कि 1 फरवरी तक सरकार बताए कि वो इच्छा मृत्यु को लेकर क्या सोचती है। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा कि यदि किसी इंसान का दिमाग काम करना बंद कर दे और वो सिर्फ वेंटिलेटर पर जी रहा हो तो क्या उसे इच्छा मृत्यु दे देनी चाहिए।

शीर्ष अदालत के इस आदेश पर सरकार द्वारा नियोजित अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल पीएस पटवालिया ने भी अपनी सहमति जताई और कहा कि सरकार अरुणा शानबाग केस पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले और लॉ कमीशन की 241 वीं रिपोर्ट का अध्ययन कर रही है। इसमें कुछ स्थितियों में निष्क्रिय इच्छामृत्यु को इजाजत देने की बात कही गई है।

पीएस पटवालिया ने कोर्ट में कहा कि मरीजों और डॉक्टरों की सुरक्षा के लिए मेडिकल ट्रीटमेंट टू टर्मिनली इल पेशेंट बिल अभी लंबित है। इस संबंध में कॉमन कॉज नामक एनजीओ ने जनहित याचिका दायर की थी। इसी मामले की कोर्ट में सुनवाई हो रही थी। इस याचिका में मांग की गई है कि इच्छा मृत्यु को मौलिक अधिकारों की श्रेणी में रखा जाए। संगठन ने 2005 में याचिका दायर की थी। इसमें संगठन की ओर से कहा गया था कि जब डॉ की यह राय हो जाए कि लाइलाज बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति मरने की हालत में पहुंच जाए, तो उसे वेंटिलेटर पर रखने से इंकार कर दिया जाना चाहिए। वेंटिलेटर पर रखने से मरीज की वेदना बढ़ती ही जाएगी।

इच्छामृत्यु का मुद्दा दुनिया भर में विवादित रहा है। अधिकांश देश इस बात की इजाजत नही देते। इच्छामृत्यु के लिए मरीज को एक खास तरह के पदार्थ का सहारा लेना होता है। इसकी इजाजत केवल नीदरलैंड, लग्जमबर्ग और बेल्जियम जैसे देशों में है। यह भी दो तरह से होते है- एक्टिव यूथनेशिया और पैसिव यूथनेशिया। अरुणा शानबाग के मामले में कोर्ट ने पैसिव यूथनेशिया का जिक्र किया था। जिसके तहत एक मरणासन्न व्यक्ति को वेंटिलेटर से जानबूझकर हटाने की बात थी। पैसिव यूथनैश्या को अमेरिका, जर्मनी, जापान, स्विट्जरलैंड और अल्बानिया जैसे अधिकांश देशों में मंजूरी मिली हुई है। हालांकि भारत में इसको लेकर अभी तक कोई कानून नहीं है।

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