'जब मुस्लिम भीड़ ने जिन्दा जला डाले थे 59 हिन्दू..', मीडिया ने दिखाया था गजब का 'दोगलापन'
'जब मुस्लिम भीड़ ने जिन्दा जला डाले थे 59 हिन्दू..', मीडिया ने दिखाया था गजब का 'दोगलापन'
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अहमदाबाद: 27 फरवरी, 2002, इसी दिन सुबह मुस्लिमों की भीड़ ने गोधरा एक ट्रेन में आग लगा दी गई। मकसद था, हिन्दुओं की हत्या। भगवान श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या से जो श्रद्धालु इस ट्रेन से वापस लौट रहे थे, उन्हें इस भीड़ ने ज़िंदा जला डाला था। 1000-2000 की मुस्लिम भीड़ द्वारा किए गए इस जघन्य करतूत में 59 हिन्दु जिन्दा जल गए, जिनमें 27 महिलाएँ और 10 बच्चे भी शामिल थे। मीडिया ने इस वीभत्स नरसंहार के बाद भड़के हिन्दू-मुस्लिम दंगों को तो जमकर चलाया, मगर गोधरा की घटना को छिपाने में पूरी जान झोंक दी। जैसा हमेशा से होता आया है, इसमें एक पक्ष को पीड़ित दिखाने के लिए पूरा जोर लगा दिया जाता है, वहीं, वास्तव में जो पीड़ित हैं, उन्हें अपराधी साबित कर दिया जाता है। ऐसा ही इस मामले में भी हुआ। 

गुजरात दंगा मामले में सूबे के तत्कालीन सीएम नरेंद्र मोदी को जाँच के नाम पर प्रताड़ित करने में UPA सरकार ने हर हथकंडा अपनाया।  गुजरात दंगों में मोदी को दोषी दिखाने के लिए विपक्षियों ने सारी मर्यादाएं लांघ दीं। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें क्लीन चिट दे दी, और अब इस क्लीन चिट को यथावत रखने का भी आदेश आ चुका है। हाल ही में गृह मंत्री अमित शाह ने बताया कि किस तरह भाजपा विरोधी सियासी दल, कुछ उन सियासी दलों के हिमायती पत्रकार और कुछ NGO ने मिल कर इन आरोपों को इतना प्रचारित किया और फैलाया कि  लोग धीरे-धीरे झूठ को ही सच मानने लगे। अमित शाह ने तीस्ता सीतलवाड़ का नाम लिया, जिसका NGO इस पूरे प्रकरण में काफी एक्टिव रहा था। जाकिया जाफरी भी तीस्ता के इशारे पर ही सुप्रीम कोर्ट पहुंची। उस वक़्त ‘तहलका’ पत्रिका ने भी स्टिंग के नाम पर मोदी को बदनाम करने का प्रयास किया, मगर उसे भी न्यायपालिका ने खारिज कर दिया।

अमित शाह ने ये भी बताया कि किस तरह तत्कालीन UPA सरकार ने तीस्ता के NGO की हर तरह से मदद की। गुजरात दंगों में मारे गए कांग्रेस सांसद एहसान जाफरी की पत्नी जकिया को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि तीस्ता ने ज़किया की भावनाओं का फायदा उठाया। विवादित पत्रकार राना अय्यूब ने ‘गुजरात फाइल्स’ लिख कर किताब के जरिए प्रोपेगंडा फैलाया। जिसके बाद वैश्विक स्तर पर अय्यूब को मीडिया चैनलों से बुलावे आने लगे और उनके द्वारा कही गई बातों को सच माना जाने लगा। भले ही आज वही राना अय्यूब चंदा चोरी के आरोपों में घिरी हुईं हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने अय्यूब की प्रोपेगंडा बुक को भी शंकाओ, अनुमानों और कल्पनाओं पर आधारित बताते हुए ख़ारिज कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी भी की थी कि किसी व्यक्ति की निजी राय सबूत नहीं हो सकती। अमित शाह ने याद दिलाया कि किस तरह नरेंद्र मोदी दो दशक तक सब कुछ सहते हुए इस लड़ाई को लड़ते रहे, उन्होंने ये करीब से देखा है।

नैरेटिव सेट करने की कोशिशें यहाँ तक हुईं कि, मोदी से जुड़ी तमाम खबरों में उनके नाम के साथ मीडिया ने ‘2002’ लगा दिया। मगर, इसमें कहीं भी गोधरा अग्निकांड का कहीं जिक्र नहीं होता था।  59 हिन्दुओं को ज़िंदा जलाने वाली मुस्लिम भीड़ को बचाने के लिए कांग्रेस की केंद्र सरकार ने इसे ‘दुर्घटना’ साबित करने का कुत्सित प्रयास किया। सोनिया गाँधी ने मोदी को ‘मौत का सौदागर’ कहा, उनके पुत्र राहुल गाँधी ने ‘ज़हर की खेती’ के आरोप लगाए। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने आखिर तमाम नैरेटिव को ध्वस्त करते हुए नरेंद्र मोदी को इस मामले में क्लीन चिट दे दी। 

गुजरात दंगों और गोधरा कांड पर मीडिया का दोगलापन :-

काफी समय तक कई बड़े मीडिया चैनलों में काम कर चुके प्रखर श्रीवास्तव ने इस मुद्दे पर बोलते हुए बताया कि सच दिखाना चाहिए, मगर सच दिखाने का तरीका क्या होना चाहिए? उन्होंने कहा कि मीडिया में दोनों तरफ के तथ्य दिखाने की बात कही जाती है, किन्तु दोनों पक्ष दिखाने के नाम पर क्या खेल खेला जाता है और क्या नैरेटिव सेट किया जाता है, ये किसी को नहीं पता। 2002 के दंगों के दौरान ‘देश के सबसे बड़े टीवी पत्रकार’ ने स्पष्ट रूप से गोधरा की रिपोर्टिंग करते हुए कहा था कि 'एक भीड़ ने, जिसका कोई चेहरा नहीं है, एक बोगी पर हमला कर दिया।' यहाँ पत्रकार को पता ही नहीं था कि भीड़ कौन थी या वो 59 बेकसूरों को जिन्दा जला डालने वाले कट्टरपंथियों को बचाने में लगे हुए थे। 

 

प्रखर श्रीवास्तव ने कहा कि भले ही इसके पीछे का मकसद एक आम आदमी न समझ सके, मगर एक पत्रकार इसे अच्छी तरह समझ सकता है। इसके बाद प्रखर ने उसी पत्रकार की रिपोर्टिंग का दूसरा उदाहरण दिया। जब वो गुजरात दंगों में नरोडा पाटिया से रिपोर्टिंग करता है, तब वही पत्रकार खुल कर कहता है कि ‘हिन्दुओं की भीड़ ने मस्जिद पर हमला कर दिया।’ प्रखर श्रीवास्तव कहते हैं कि सवाल पूछने पर वो पत्रकार कहेगा कि मैंने तो दोनों पक्ष दिखाए हैं, गोधरा और नरोडा पटिया – दोनों की रिपोर्टिंग की है। प्रखर कहते हैं कि, 'नरोडा पाटिया की रिपोर्टिंग और गोधरा की रिपोर्टिंग में जो शब्दों का फर्क है, उसे ही नैरेटिव सेट किया जाना कहते है। जो 2002 में भी किया गया और उसकी सज़ा हम आज भी भुगत रहे हैं।' प्रखर श्रीवास्तव की बातों से ये स्पष्ट हो जाता है कि मीडिया के कितने ही पत्रकारों ने इस प्रकार के खेल कर के कितने ही नैरेटिव सेट किए होंगे, तभी आज ‘गुजरात दंगों’ की बात कर के हिन्दुओं पर दोष मढ़ा जाता है, मगर गोधरा अग्निकांड का आरोप एक अनजान, बिना धर्म की और कभी न पहचानी जाने वाली भीड़ पर लगाकर इसे हादसा साबित कर दिया जाता है।

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