style="text-align: justify;">नई दिल्ली : उच्च न्यायालय की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति लीला सेठ ने हाल ही में लैंगिक भेदभाव का सामना करने की बात स्वीकारी है। उनका कहना था कि उन्हें भी अपने कार्यकाल के दौरान लैंगिक भेदभाव का सामना करना पड़ा।
हालांकि इस भेदभाव का उन्होंने डटकर सामना किया इस दौरान उन्होंने कहा जूझते हुए वे जूनियर पद से शीर्ष पद पर पहुंची। इसके लिए उन्हें बहुत सी बातों का सामना करना पड़ा।
मिली जानकारी के अनुसार दिल्ली में संवैधानिक और कर मामलों के साथ अन्य कानूनी पहलुओं पर 5 वर्ष तक वकालत करने के बाद उन्हें जनवरी 1977 में हाईकोर्ट का वरिष्ठ अभिभाषक बना दिया।
जिसके बाद 25 जुलाई 1978 को उन्हें दिल्ली उच्च न्यायालय में जज नियुक्त किया गया। इस दौरान उन्होंने कहा कि मैगजीन में एक लेख में इस बात का उल्लेख किया गया है।
परंपरा यह रही कि नया न्यायाधीश शपथ ग्रहण करने के बाद मुख्य न्यायाधीश के साथ अदालत में बैठे जिससे वह अपने अनुभव से लाभ प्राप्त कर सके।
दूसरी ओर मुख्य न्यायाधीश अपने परंपरागत और रूढि़वादी विचारों के चलते किसी महिला के साथ बैठने को लेकर आशंकित थे, दरअसल इसका अर्थ यह था कि उन्हें खुली अदालत में तो बैठना ही पड़ा दूसरी ओर निर्णयों के लिए बंद चैंबर में भी साथ बैठना पड़ता।
सेठ ने लिखा कि मुझसे यह कहा गया कि यह सब मैं नहीं कर सकता। इसलिए वरिष्ठ न्यायाधीश के साथ बैठें। उन्होंने कहा कि उन्होंने बारीकियां सिखाई कि कैसे एक नौसिखिए से निर्णायक तक की भूमिका में पहुंचा जा सकता है।
उन्होंने कहा था कि जब भी उनका परिचय करवाया जाता उन्हें महिला जज कहा जाता जैसे उनके महिला होने का परिचय स्वतः ही नहीं मिल पाता। यही नहीं उन्होंने कहा कि एक जज तो फोन पर उनसे आक्रामक तरीके से ही बात करने लगे तो दूसरी ओर कई बार उनसे उम्मीद की जाती कि वे चाय आदि की जिम्मेदारी संभाल लें। इन सभी बातों से वे अजीब सी स्थिति महसूस करती थीं।