समलैंगिकता को मान्यता - एक बड़ा पैचिदा सवाल
समलैंगिकता को मान्यता - एक बड़ा पैचिदा सवाल
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नई दिल्ली: देश में समलैंगिकता को अपराध न मानने और समलैंगिकों को एक साथ रहने का अधिकार देने को लेकर कई बार आवाज़ें उठती रही हैं, लेकिन ये आवाज़ें महज महानगरों तक ही सिमटकर रह गई हैं। मुंबई जैसे महानगरों जहां पाश्चात्य संस्कृति और मिली-जुली संस्कृति का प्रभाव है वहां समलैंगिकों को भी काफी हद तक खुली आज़ादी है हालांकि भारतीय समाज में समलैंगिकता को मान्यता नहीं है। दूसरी ओर समलैंगिक कानून में खुद को साथ रहने का अधिकार दिए जाने की मांग करते आए हैं। 

उनकी इन मांगों पर न्यायालयों ने ध्यान दिया दिल्ली उच्च न्यायालय 2009 में आईपीसी की धारा 377 के तहत इसे मान्यता दी लेकिन सर्वोच्च न्यायालय में इस संबंध में धारा 377 के प्रावधान को जारी रखते हुए। समलैंगिकता को मान्यता नहीं दी गई। जिसके कारण समलैंगिक निराश हो गए। हालांकि न्यायिक प्रणाली में बदलाव की दरकार समझी जा रही है। 

दरअसल ट्रांसजेंडर्स की तरह समलैंगिकता नैसर्गिक होती है। समलैंगिकों को विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण नहीं होता है। ऐसे में उन्हें कानूनी मान्यता दिए जाने की बात कही जाती है, लेकिन यह भी कहा जाता है कि यदि लिव इन रिलेशनशिप की ही तरह इसे कानूनी मान्यता मिल जाएगी तो समाज का प्रकार बदल जाएगा। ऐसे में समाज में वैवाहिक संस्था के अस्तित्व पर संकट मंडरा सकता है तो दूसरी ओर सामाजिकता पर भी सवाल उठ सकते हैं। 

स्त्री बनाम स्त्री और पुरूष बनाम पुरूष के साथ रहने से समाज में अलग प्रभाव देखने को मिल सकता है। यह भी कहा जा सकता है कि इससे भारतीय समाज में विघटन पैदा हो सकता है। समाज में विघटन आने के कारण कई तरह की समस्याऐं बढ़ सकती हैं लेकिन समलैंगिकों के साथ आने वाली नैसर्गिक समस्याओं का समाधान करना भी बेहद आवश्यक है। ऐसे में न्यायालय के सामने एक बड़ा सवाल है कि आखिर वह किस तरह का निर्णय देकर न्याय व्यवस्था को कायम करता है। 

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