माँ गंगा को खुश करने के लिए पढ़े गंगा स्तुति और गंगा चालीसा
माँ गंगा को खुश करने के लिए पढ़े गंगा स्तुति और गंगा चालीसा
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गंगा सप्तमी का पर्व इस साल 8 मई को मनाया जाने वाला है। वैसे तो आप सभी जानते ही होंगे कि गंगा नदी को माँ का दर्जा दिया जाता है। जी हाँ और अनेक धर्मग्रंथों में गंगा नदी के महत्व का वर्णन देखने को मिलता है। तो अब आज हम आपको बताने जा रहे हैं गंगा स्तुति, गंगा चालीसा, जिनका पाठ गंगा सप्तमी के दिन करने से सभी कार्य पूरे होते हैं और कोई रोग नहीं होता।

श्री गंगा स्तुति 
देवी सुरेश्वरी भगवती गंगे
देवि! सुरेश्वरि! भगवति! गंगे!

त्रिभुवनतारिणि तरलतरंगे।

शंकरमौलिविहारिणि विमले

मम मतिरास्तां तव पदकमले ॥1 ॥

भागीरथीसुखदायिनि मातस्तव

जलमहिमा निगमे ख्यातः ।

नाहं जाने तव महिमानं

पाहि कृपामयि मामज्ञानम् ॥ 2 ॥

हरिपदपाद्यतरंगिणी गंगे

हिमविधुमुक्ताधवलतरंगे।

दूरीकुरुमम दुष्कृतिभारं

कुरु कृपया भवसागरपारम् ॥ 3 ॥

तव जलममलं येन निपीतं

परमपदं खलु तेन गृहीतम्।

मातर्गंग त्वयि यो भक्तः किल

तं द्रष्टुं न यमः शक्तः ॥ 4 ॥

पतितोद्धारिणि जाह्नवि गंगे

खंडित गिरिवरमंडित भंगे।

भीष्मजननि हे मुनिवरकन्ये !

पतितनिवारिणि त्रिभुवन धन्ये ॥ 5 ॥
कल्पलतामिव फलदां लोके

प्रणमति यस्त्वां न पतति शोके।

पारावारविहारिणिगंगे

विमुखयुवति कृततरलापंगे॥ 6 ॥

तव चेन्मातः स्रोतः स्नातः

पुनरपि जठरे सोपि न जातः।

नरकनिवारिणि जाह्नवि गंगे

कलुषविनाशिनि महिमोत्तुंगे। ॥ 7 ॥

पुनरसदंगे पुण्यतरंगे

जय जय जाह्नवि करुणापांगे ।

इंद्रमुकुटमणिराजितचरणे

सुखदे शुभदे भक्तशरण्ये ॥ 8 ॥

रोंगं शोकं तापं पापं हर मे

भगवति कुमतिकलापम्।

त्रिभुवनसारे वसुधाहारे

त्वमसि गतिर्मम खलु संसारे ॥ 9 ॥

अलकानंदे परमानंदे कुरु

करुणामयि कातरवंद्ये ।

तव तटनिकटे यस्य निवासः

खलु वैकुंठे तस्य निवासः ॥ 10 ॥

वरमिह नीरे कमठो मीनः

किं वा तीरे शरटः क्षीणः ।

अथवाश्वपचो मलिनो दीनस्तव

न हि दूरे नृपतिकुलीनः ॥ 11 ॥

भो भुवनेश्वरि पुण्ये धन्ये

देवि द्रवमयि मुनिवरकन्ये ।

गंगा स्तवमिमममलं नित्यं पठति

नरे यः स जयति सत्यम् ॥ 12 ॥

येषां हृदये गंभक्तिस्तेषां

भवति सदा सुखमुक्तिः ।

मधुराकंता पञ्झटिकाभिः

परमानन्दकलितललिताभिः ॥ 13 ॥

गंगा स्तोत्रमिदं भवसारं

वांछितफलदं विमलं सारम् ।

शंकरसेवक शंकर रचितं पठति

सुखीः तव इति च समाप्तः ॥ 14 ॥


श्री गंगा चालीसा-
'जय जग जननि अघ खानी'

दोहा

जय जय जय जग पावनी जयति देवसरि गंग ।

जय शिव जटा निवासिनी अनुपम तुंग तरंग ॥

चौपाई

जय जग जननि अघ खानी, आनन्द करनि गंग महरानी ।

जय भागीरथि सुरसरि माता, कलिमल मूल दलनि विखयाता ।।

जय जय जय हनु सुता अघ अननी, भीषम की माता जग जननी ।

धवल कमल दल मम तनु साजे, लखि शत शरद चन्द्र छवि लाजे ।।

वाहन मकर विमल शुचि सोहै, अमिय कलश कर लखि मन मोहै ।

जडित रत्न कंचन आभूषण, हिय मणि हार, हरणितम दूषण ।।

जग पावनि त्रय ताप नसावनि, तरल तरंग तंग मन भावनि ।

जो गणपति अति पूज्य प्रधाना, तिहुं ते प्रथम गंग अस्नाना ।।

ब्रह्‌म कमण्डल वासिनी देवी श्री प्रभु पद पंकज सुख सेवी ।

साठि सहत्र सगर सुत तारयो, गंगा सागर तीरथ धारयो ।।

अगम तरंग उठयो मन भावन, लखि तीरथ हरिद्वार सुहावन ।

तीरथ राज प्रयाग अक्षैवट, धरयौ मातु पुनि काशी करवट ।।

धनि धनि सुरसरि स्वर्ग की सीढ़ी, तारणि अमित पितृ पद पीढी ।

भागीरथ तप कियो अपारा, दियो ब्रह्‌म तब सुरसरि धारा ।।

जब जग जननी चल्यो लहराई, शंभु जटा महं रह्‌यो समाई ।

वर्ष पर्यन्त गंग महरानी, रहीं शंभु के जटा भुलानी ।।

मुनि भागीरथ शंभुहिं ध्यायो, तब इक बूंद जटा से पायो ।

ताते मातु भई त्रय धारा, मृत्यु लोक, नभ अरु पातारा ।।

गई पाताल प्रभावति नामा, मन्दाकिनी गई गगन ललामा ।

मृत्यु लोक जाह्‌नवी सुहावनि, कलिमल हरणि अगम जग पावनि ।।

धनि मइया तव महिमा भारी, धर्म धुरि कलि कलुष कुठारी ।

मातु प्रभावति धनि मन्दाकिनी, धनि सुरसरित सकल भयनासिनी ।।

पान करत निर्मल गंगाजल, पावत मन इच्छित अनन्त फल ।

पूरब जन्म पुण्य जब जागत, तबहिं ध्यान गंगा महं लागत ।।

जई पगु सुरसरि हेतु उठावहिं, तइ जगि अश्वमेध फल पावहिं ।

महा पतित जिन काहु न तारे, तिन तारे इक नाम तिहारे ।।

शत योजनहू से जो ध्यावहिं, निश्चय विष्णु लोक पद पावहिं ।

नाम भजत अगणित अघ नाशै, विमल ज्ञान बल बुद्धि प्रकाशै ।।

जिमि धन मूल धर्म अरु दाना, धर्म मूल गंगाजल पाना ।

तव गुण गुणन करत सुख भाजत, गृह गृह सम्पत्ति सुमति विराजत ।।

गंगहिं नेम सहित निज ध्यावत, दुर्जनहूं सज्जन पद पावत ।

बुद्धिहीन विद्या बल पावै, रोगी रोग मुक्त ह्‌वै जावै ।।

गंगा गंगा जो नर कहहीं, भूखे नंगे कबहूं न रहहीं ।

निकसत की मुख गंगा माई, श्रवण दाबि यम चलहिं पराई ।।

महां अधिन अधमन कहं तारें, भए नर्क के बन्द किवारे ।

जो नर जपै गंग शत नामा, सकल सिद्ध पूरण ह्‌वै कामा ।।

सब सुख भोग परम पद पावहिं, आवागमन रहित ह्‌वै जावहिं ।

धनि मइया सुरसरि सुखदैनी, धनि धनि तीरथ राज त्रिवेणी ।।

ककरा ग्राम ऋषि दुर्वासा, सुन्दरदास गंगा कर दासा ।

जो यह पढ़ै गंगा चालीसा, मिलै भक्ति अविरल वागीसा ।।

दोहा

नित नव सुख सम्पत्ति लहैं, धरैं, गंग का ध्यान ।

अन्त समय सुरपुर बसै, सादर बैठि विमान ॥

सम्वत्‌ भुज नभ दिशि, राम जन्म दिन चैत्र ।

पूण चालीसा कियो, हरि भक्तन हित नैत्र ॥

।।इतिश्री गंगा चालीसा समाप्त।।

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