style="text-align: justify;">बॉलीवुड के जाने माने निर्देशक दिबाकर बैनर्जी की सुशांत सिंह राजपूत स्टारर फिल्म डिटेक्टिव ब्योमकेश बख्शी आज रिलीज हो गई. फिल्म में बंगाली लेखक शरदेन्दु बंद्योपाध्याय की कहानी के किरदार 'ब्योमकेश बख्शी' को जीवंत करने की कोशिश की है. ब्योमकेश के साथ मर्डर मिस्ट्री को सुलझाने की कोशिश में दिबाकर ने 1942 के कलकत्ता को पर्दे पर जीवंत किया है. अक्सर मर्डर मिस्ट्री पर बनी अच्छी हिंदी फिल्मों में कहानी के आगे बढ़ने के साथ सस्पेंस भी दिलचस्प होता जाता है. अंत तक हम अनुमान लगाते रहते हैं कि कहीं कत्ल राधा के चाचा जी ने तो नहीं किया है? वैसे, ऐसा ही कुछ रहस्य दिबाकर ने अपनी इस ताजा फिल्म में भी बनाए रखा है. आखिर में फिल्म के अंत हम तक एक सरप्राइज की तरह पहुंचता है.
फिल्म की कहानी. नवंबर 1942 में कलकत्ता के विद्या सदन कॉलेज में पढ़ने वाले ब्योमकेश बख्शी (सुशांत सिंह राजपूत ) से एक सहपाठी अजीत बंद्योपाध्याय (आनंद तिवारी) अपने एक परिचित के अचानक गायब होने की बात करता है. ब्योमकेश उसे ढूंढ़ने का मन बनाता है और यह खोज एक मर्डर मिस्ट्री में तब्दील हो जाती है. रहस्य का हल निकालने के लिए ब्योमकेश आसपास के लोगों की भी मदद लेता है. फिल्म में ब्योमकेश का पाला अलग-अलग किरदारों जैसे अंगूरी देवी (स्वस्तिका मुखर्जी), डॉ. अनुकूल गुहा (नीरज कबि) से पड़ता है. लेकिन क्या वाकई किसी के गायब होने की यह दास्तान एक मर्डर मिस्ट्री है? क्या ब्योमकेश अपने दोस्त अजीत की मदद कर पाता है? यह और ऐसे सारे सवालों के जवाब के लिए आपको फिल्म देखना होगी.
दिबाकर बनर्जी की इस फिल्म में दो फिल्म पुराने सुशांत सिंह राजपूत हैं, जिन्होंने अपने किरदार को निभाने के साथ-साथ निरंतरता बनाए रखने में दक्षता हासिल की है.
वहीं, उनके दोस्त के रूप में आनंद तिवारी ने फिल्म और कहानी की मांग के मुताबिक काम किया है. बंगाल की मशहूर अभिनेत्री स्वस्तिका मुखर्जी ने अंगूरी देवी के रूप में हर एक फ्रेम को जगमाया है. वह एक पल को फिल्म 'द ट्रेन' की हेलेन की याद दिलाती हैं. पहले ही फ्रेम में उनकी एंट्री स्विम सूट में होती है और फिल्म में अपने किरदार को स्वस्तिका ने बखूबी सिद्ध किया है. डॉ. अनुकूल गुहा के रूप में अभिनेता नीरज कबि ने काफी प्रभावित किया है. संवाद और प्रदर्शन की बदौलत नीरज सबसे उत्कृष्ट रूप में नजर आए हैं. इस फिल्म के पहले भी नीरज ने Ship Of Theseus में बेहतरीन एक्टिंग का मुजाहरा पेश किया था. दिव्या मेनन और मेयांग चैंग ने भी अपने-अपने किरदार को निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. दिबाकर की इस फिल्म की कहानी थोड़ी लंबी है और कहीं-कहीं जरूरत से ज्यादा खींची हुई सी लगती है.
लगभग ढाई घंटे की ये फिल्म थोड़ी और छोटी हो सकती थी. फिल्म में जापान के कलकत्ता पर किए जा रहे हमले जैसी घटना को दिबाकर बस छूकर निकल गए हैं. जाहिर तौर पर उनका सारा ध्यान सिर्फ मर्डर मिस्ट्री को सुलझाने में ही लगा हुआ है. यानी फिल्म में आपको ज्यादा से ज्यादा वक्त ब्योमकेश के साथ बिताने का मौका मिलेगा. दिबाकर ने फिल्म में 1942 के कलकत्ता को जिस बारीकी के साथ दिखाया है वह तारीफे काबिल है. दातुन करने से लेकर छुरे से दाढ़ी बनाना. हाथ से खाना. पान मोड़ने का अपना तरीका. अखबार, घड़ी, चश्मा सबकुछ जैसे उसी दौरा का प्रतीत होता है. यहां तक की बैकग्राउंड में बजता हुआ गाना 'ये दिन रात नहीं, अगर हम साथ नहीं' भी उसी दौर के गानो और उस दौर की याद दिलाता है.