भारतीय रण का गौरव थे फील्ड मार्शल मानेकशॉ
भारतीय रण का गौरव थे फील्ड मार्शल मानेकशॉ
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वर्ष 1971 का भारत और पाकिस्तान युद्ध भारतीयों के दिलों में आज भी शौर्य भर देता है। भारत के वीर सैनिकों ने अपने रणकौशल और बहादुरी से पाकिस्तान के 91000 सैनिकों को बंदी बना लिया था पाकिस्तान को मुंह की खानी पड़ी थी और इस जीत के बाद 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान से बांग्लादेश को स्वतंत्र करवा लिया गया था। यह लड़ाई 13 दिनों तक चली थी और इस युद्ध की जीत के नायक बने थे। फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ। मानेकशा को भारतीय सेना में बड़ा सम्मान हासिल है।

उनका जन्म 3 अप्रैल 1914 को गुजराती-पारसी परिवार में हुआ था। भारतीय सेना ज्वाॅइन करने के बाद जब 3 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान ने भारत पर हमला कर दिया तो जनरल मानेकशा ने उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को यह आश्वासन दिया कि वे सात दिन में ही पाकिस्तान के जंगी बेड़े को समाप्त कर देंगे और युद्ध में भारत की जीत होगी। इसके बाद पाकिस्तान भारत से हार गया। 91 हजार पाकिस्तानी सैनिकों को बंदी बना लिया गया। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस जीत के बाद मानेकशा को फील्ड मार्शल नियुक्त कर दिया।

सैम मानेकशा अपने दिल की बात खुलकर कहा करते थे। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी को मैडम कहने से ही इन्कार कर दिया था। इस बारे में उनका कहना था कि यह संबोधन एक खास वर्ग के लिए उपयोग होता है। इसलिए वे उन्हें ‘प्रधानमंत्री’ ही कहेंगे। उन्होंने 26 फरवरी 1977 में कहा था कि वीर सावरकर इंदिरा गांधी के स्थान पर होते तो फिर भारत की सेना वर्ष 1966 में ही लाहौर पर जीत दर्ज कर लेती। मानेकशा का जन्म 3 अप्रैल 1914 को अमृतसर के पारसी परिवार में हुआ था। मानेकशा के न्म के पहले ही उनका परिवार गुजरात में वलसाड़ क्षेत्र में आकर बस गया था। उनकी शिक्षा अमृतसर में हुई। इसके बाद उन्होंने नैनीताल के शेरवुड काॅलेज में भी अध्ययन किया।

वे भारतीय रक्षा अकादमी की पहली बैच के कैडेट थे। इस बैच में 40 कैडेट चुने गए थे। मानेकशा 1937 में सार्वजनिक समारोह में भागीदारी करने के लिए लाहौर पहुंचे थे। उनकी भेंट सिल्लो बोडे से हुई। इसके दो साल बाद ही ये दोनों 22 अप्रैल 1939 को वैवाहिक संबंध में बंध गए थे। मानेकशा ने द्वितीय विश्वयुद्ध में भागीदारी भी की थी। वे 17 वीं इंफे्रंटीडिवीजन में 4-12 फ्रंटियर फोर्स रेजीमेंट के कैप्टन के पद पर नियुक्त थे। ऐसे में बर्मा अभियान में लड़ते समय वे सेतांग नदी के तट पर घायल हो गए। जापानी सैनिकों से वे लड़ रहे थे और गंभीररूप से घायल हो गए।

वे गोरखा रेजीमेंट की कमान संभालने वाले पहले भारतीय थे। गोरखा रेजीमेंट में उन्हें सैम बहादुर के नाम से जाना जाता था। उन्हें पद्मविभूषण अलंकरण से सम्मानित किया गया था। उन्होंने 27 जून 2008 में ऊटी के समीप वेलिंगटन के सैन्य चिकित्सालय में अंतिम सांस ली।

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