नियम बड़े या बेटे का फर्ज़, याद आ जाती है वतन की मिट्टी !
नियम बड़े या बेटे का फर्ज़, याद आ जाती है वतन की मिट्टी !
Share:

अक्सर भारत के नेता और बड़े स्तर के मंत्री विदेशों में जाकर वहां बसे अनिवासी भारतीयों के बीच भारत के विकास की गाथा कहते हैं। वे वहां बसे भारतीयों को भारतीयों की मेहनत, उनकी बुलंदियों की बातें सुनाते हैं और भारत की प्रतिभा की सराहना करते हैं मगर जब ये भारतीय हालात के आगे मजबूर हों और इन पर ऐसे संकट के बादल मंडराए कि ये अपनों का शव तक भारत वापस न ले जाए पाऐं तब सरकारें और ये नेता तक इनकी मदद करने में असमर्थ हो जाते हैं।

जी हां, ऐसे समय में लगता है। सारे जहां, से अच्छा हिंदुस्तान हमारा। किसी के यहां गमी हो जाए, रोने भर की आवाज़ आ जाए तो लोग परिवार की मदद करने उमड़ आते हैं। मृत व्यक्ति की अर्थी को कांधा देना तो जैसे लोग पुण्य का कार्य ही समझते हैं। मगर विदेशों में अर्थी का सौदा होता है। इसका वज़न यहां पर भारी होता है। सच में अमेरिकी सिक्का डाॅलर एक अर्थी से भी ज़्यादा भारी है। यह केवल लिखे गए शब्द नहीं हैं जब मुंबई मूल के और न्यूयाॅर्क में बसे चंदन गवई के भाईयों स्वप्निल और आनंद गवई पर इस तरह की स्थिति बनी तो वे न तो रो सके और न ही भारत वापस जाने की हिम्मत जुटा पाए।

पहले ही माता - पिता और एक भाई की अर्थी का बोझ उनके कंधे पर था, तो दूसरी ओर विदेशों में अंत्येष्टि के कड़े नियम थे। भारत होता तो बात कुछ और होती लेकिन यहां एक व्यक्ति की अंत्येष्टि पर 6 हजार यूएस डाॅलर अर्थात लगभग 4 लाख रूपए का खर्च आता है तो यदि एक शव को भारत ले जाना हो तो 20 हजार यूएस डाॅलर अर्थात् 13 लाख रूपए का खर्च वहन करना होता है। आखिर बेटे अपने माता - पिता और भाई का शव ले जाने के साथ कोमा में गई भाभी और घायल भतीजे को कैसे ले जाते।

उन्हें लगा था विदेश में सबकुछ अलग होता है। यहां परिस्थितियां अलग होती हैं। बातें अलग होती हैं। लोगों की स्थिति बेहतर होती है। बेटों को लगा कि हमेशा दिलासा देने वाली मां उनके कंधे पर हाथ रखकर अब कहेगी कि कोई इंतजाम हो जाएगा। बाबूजी उठेंगे और कहेंगे कि सब इंतजाम हो गया है मगर उनका ध्यान टूटते ही वे यह जान लेते हैं कि यह सब उनका भ्रम है। आखिर विदेश में रहने वाले अनिवासी भारतीयों के लिए इतने कड़े नियम क्यों। महज भारतीय ही क्या यदि कोई भी व्यक्ति अपने परिवार के सदस्यों की अंत्येष्टि करना चाहता है तो वहां की सरकारों को उदार होना चाहिए।

मगर विदेशों में अक्सर भारतीयों के प्रति ऐसे समय में रूखा व्यवहार किया जाता है। यदि उस देश की सरकार सहायता नहीं कर सकती तो विदेश में मौजूद दूतावासों को ऐसे समय में भारतीयों की मदद करनी चाहिए। कई बार विदेश में रहने वाले भारतीय खुद को अलग - थलग महसूस करते हैं। हालांकि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज अपना काम काफी संजीदगी से करती हैं और कई मसलों पर वे लोगों की मदद करती हैं लेकिन इस परिवार की आस खत्म होती नज़र आ रही है। ऐसे समय विदेश मंत्रालय की भी कड़ी परीक्षा होती है।

वे भारतीय जो विदेशों में रच - बस गए हैं। वे भारतीय जिनकी प्रतिभा का लौहा सारी दुनिया मानती है। वे भारतीय जो अमेरिकी ब्रेन बनते जा रहे हैं क्या इतने कमजोर हो जाऐंगे कि अपनों के अंतिम संस्कार के लिए क्या कदम उठाए जाऐं उन्हें सूझे ही नहीं। यदि ऐसा होता है तो यह भारत के लिए भी काफी मुश्किलभरी बात होगी। विदेशों में रहने वाले व्यक्तियों के लिए भारतीयों के लिए सामुदायिक समितियां बनाई जा सकती हैं,

जो ऐसे समय में बुरे दौर से गुजर रहे लोगों की मदद कर सकें। इतना ही नहीं इन समितियों के लोग भी सरकार और इन लोगों के बीच एक कड़ी का कार्य भी कर सकते हैं। जिससे एक बेटा अपना कर्तव्य पूर्ण कर सके और माता और पिता की आत्मा को शांति मिल सके।

'लव गडकरी'

रिलेटेड टॉपिक्स
- Sponsored Advert -
मध्य प्रदेश जनसम्पर्क न्यूज़ फीड  

हिंदी न्यूज़ -  https://mpinfo.org/RSSFeed/RSSFeed_News.xml  

इंग्लिश न्यूज़ -  https://mpinfo.org/RSSFeed/RSSFeed_EngNews.xml

फोटो -  https://mpinfo.org/RSSFeed/RSSFeed_Photo.xml

- Sponsored Advert -