देश में महंगी होती दवाइयां
देश में महंगी होती दवाइयां
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हाल ही में देश की सर्वोच्च अदालत ने देश में महंगी होती दवाइयों और अस्पतालों के अनाप -शनाप खर्च पर चिंता प्रकट कर सरकार को कहा कि वो इस मामले में जरुरी कदम उठाएं , ताकि आम आदमी को सस्ता इलाज उपलब्ध हो सके. बता दें कि मरीज चाहे सरकारी अस्पताल में भर्ती हो या निजी अस्पताल में वह अस्पतालों के खर्चों के अलावा महंगी दवाइयों का शिकार होता है. कैंसर जैसी गंभीर बीमारी की दवाइयां भी अभी इतनी महंगी हैं, कि मरीज को शारीरिक के साथ ही आर्थिक कष्टों को भी भुगतना पड़ता है.हृदय रोग और मधुमेह की दवाइयां भी महंगी हैं. इसी संदर्भ में दवाइयों से जुड़ी यह खबर आँखें खोलने वाली है.

उल्लेखनीय है कि अगले 3 से 5 सालों में कई दवाइयों का पेटेंट खत्म हो रहा है. इसके बाद घरेलू दवा कम्पनियां जब इन दवाइयों का जैनेरिक संस्करण सामने आएगा , तो दिल की बीमारियों, मधुमेह और कैंसर की कई दवाइयों की कीमतों में भारी कमी आ जाएगी.लेकिन हैरानी वाली बात यह है कि भारत में उपयोग में वाली दवाइयों में से केवल 5 प्रतिशत को ही पेटैंट मिला हुआ है.

यदि ऑल इंडिया ऑर्गेनाइजेशन ऑफ कैमिस्ट्स एंड ड्रगिस्ट्स (ए.आई.ओ.सी.डी.) की बाजार शोध शाखा अवॉक्स फार्माट्रैक के आंकड़ों पर यकीन करें तो जनवरी, 2018 तक इसका वार्षिक कारोबार 62 करोड़ रुपए था. मधुमेह की दवा बनाने वाली ग्लिप्टिन्स की बिक्री 40 प्रतिशत की गति से बढ़ रही है. ग्लिप्टिन्स समूह की 4 अहम दवाओं सिटाग्लिप्टिन, लिनाग्लिप्टिन, विल्डाग्लिप्टिन और सेक्साग्लिप्टिन का पेटैंट अगले 5 साल में खत्म हो जाएगा.दरअसल इस श्रेणी में गलाकाट प्रतिस्पर्धा है.इसीलिए 160 से अधिक ब्रांड देश के 100 अरब रुपए से अधिक के मधुमेह दवा बाजार पर अपना नियंत्रण चाहते हैं. देश में इनका कुल बाजार 7.3 अरब रुपए का है. अभी करीब 20 दवा कम्पनियों को इन्हें बनाने का लाइसेंस दिया हुआ है. ग्लिप्टिन्स का बाजार 25 अरब रुपए का है.बड़ी दवा कम्पनियों ने इनकी बिक्री के लिए अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियों से हाथ मिला लिया है.

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