जयंती विशेष: अदम्य साहस का एक अध्याय, महाराणा प्रताप
जयंती विशेष: अदम्य साहस का एक अध्याय, महाराणा प्रताप
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भारत हमेशा से वीरों की भूमि रही है, यहाँ ऐसे अनेक शूरवीर पैदा हुए हैं , जिन्होंने अपनी मातृभूमि, अपने सिद्धांतों के लिए अपने प्राणों की भी आहुति दे दी. इन्ही शूरवीरों में से एक रणबांकुरे का नाम है महाराणा प्रताप, जो राजस्थान के मेवाड़ साम्राज्य के राजा थे. महाराणा प्रताप उन परिस्थितियों में अवतरित हुए जिस समय मुग़लों का वर्चस्व अपने चरम पर था. भारतीय राजाओं की आपसी फूट का फायदा उठाकर, मुग़ल बादशाह अकबर ने पुरे भारतवर्ष को अपने आधीन कर लिया था. केवल एक मेवाड़ ही ऐसा राज्य था, जो महाराणा प्रताप के प्रतापी नेतृत्व में अकबर के खिलाफ खड़ा था. बेशक इसके लिए महाराणा प्रताप को कईं परेशानियों का सामना करना पड़ा, लेकिन फौलादी इरादों के धनी महाराणा ने अपनी मातृभूमि मेवाड़ को मुग़लों की छाया से भी दूर रखने का प्रण ले रखा था. महाराणा के दो सौतेले भाई  शक्ति सिंह और सागर सिंह भी अकबर से जा मिले और उन्होंने अकबर की तरफ से कई बार महाराणा प्रताप को अकबर की अधीनता स्वीकार करने के प्रस्ताव भेजे, लेकिन स्वाभिमानी महाराणा ने पराधीन होकर जीने से, युद्ध में वीरगति प्राप्त करना श्रेष्ठ माना. 

अकबर और महाराणा के बीच मेवाड़ को लेकर संघर्ष पुरे 30 वर्षों तक चला, इस बीच महाराणा ने जंगलों की ख़ाक छानी, घांस की रोटियां भी खाई, महाराणा प्रताप के बच्चे राजकुल के होते हुए भी दूध और भोजन को तरसे, लेकिन महाराणा अपने प्रण पर अडिग रहे. इतने कड़े संघर्ष के बाद एक दिन अकबर और महाराणा के बीच निर्णायक युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गईं, जो 'हल्दी घाटी की लड़ाई' के नाम से प्रसिद्द है. इस लड़ाई में महाराणा ने अदम्य सहस का परिचय दिया, यहाँ तक की उनकी वीरता देखकर मुग़ल बादशाह अकबर भी भयभीत हो उठा, रणभूमि में महाराणा दुश्मनों पर ऐसे टूट पड़े थे मानों वे मुग़लों के रक्त से रणचंडी को तृप्त कर रहे हों. 

महाराणा प्रताप के 20 हज़ार सैनिकों की सेना, अकबर के 85 हज़ार सैनिकों की फ़ौज पर भारी पड़ रही थी, जब अकबर और महाराणा का आमना-सामना हुआ तो एक बार महाराणा प्रताप के बेमिसाल घोड़े चेतक ने अकबर के हाथी के मस्तक पर अपने पाँव जमा, महाराणा को अकबर का सीना छेद देने का अवसर प्रदान किया, लेकिन इस बीच में अकबर का महावत आ गया और अकबर बच गया. अपने बादशाह को इस तरह देख मुग़ल फौजों ने महाराणा को घेर लिया, चारों ओर से घिर जाने पर महाराणा ने युद्ध क्षेत्र से बाहर निकलने का निर्णय लिया, उनके घोड़े चेतक ने एक 26 फ़ीट चौड़े दरिया को पार कर महाराणा को दुश्मन के घेरे से तो आज़ाद करा दिया, लेकिन इस संघर्ष में चेतक पूरी तरह लहूलुहान हो चुका था. घायल चेतक ने अपने स्वामी की रक्षा करते हुए अपने प्राण त्याग दिए, इससे महाराणा को गहरा आघात पहुंचा. लेकिन फिर भी उन्होंने मुग़लों की अधीनता स्वीकार नहीं की, 1579 से 1585 के बीच मुग़ल प्रदेशों में विद्रोह होने से महाराणा ने एक बार फिर अपनी ताकत इकट्ठी की और उदयपुर के साथ 36 महत्वपूर्ण स्थानों को अपने अधिकार में कर लिया . लेकिन 11 साल बाद 19 जनवरी 1597 को नई राजधानी चावंड में एक छोटी सी दुर्घटना में 57 साल की आयु में महाराणा प्रताप की मृत्यु हो गई. इस तरह भारत के एक वीर सपूत ने इस दुनिया से विदा ली, लेकिन उन्ही के विचारों का अवलम्बन करते हुए, भारत में अनेक देशभक्त पैदा हुए  , जिन्होंने मुग़लों और अंग्रेज़ों के खिलाफ तलवार उठाकर फिर महाराणा को जीवंत कर दिया. 

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