मध्य प्रदेश में इंदौर व भोपाल को मेट्रो ट्रैन चलाने के लिए चुन लिया गया और दो अलग-अलग टीमों ने इनमें योजना बनाने के लिए काम करना भी शुरू कर दिया; यानि खर्चो का मीटर चालू कर दिया | इन दोनों शहरों के वासियो को यह खबर सुनने में ख़ुशी और उत्साह बढ़ाने वाली लगेगी | लेकिन तथ्यात्मक सोच के साथ इसकी गहराई में जायेंगे तो मालुम पड़ेगा कि दोनों ही शहरों में अगले दस सालों तक तो मेट्रो ट्रैन चलाने की बात सोचने में कोई समझदारी नहीं है | वैसे तो यहाँ तक बात उड़ाई गई थी कि तीन साल में ही इंदौर व भोपाल दोनों में मेट्रो ट्रैन चलने लगेगी | फिर बात सुधार कर कहा गया कि, 5-7 साल लगेंगे |
सुना है, इसके लिए विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (D.P.R.) बन गई है पर अज्ञात कारणों से उसे सबके लिए जारी नहीं किया गया है | मीडिया और शहर के जागरूक तकनिकी अध्ययन-शील लोगों के माध्यम से जो जानकारी मिली है, वह तो यह साबित करने के लिए काफी है कि यह मेट्रो यात्रियों के लिए किफायती सुविधा नहीं बल्कि आम-जानता पर अगले 20 वर्षों तक बड़ा बोझ बनी रहेगी | प्राप्त जानकारी के अनुसार इसकी रेल्वे-लाइन 104 कि.मी. लम्बी होगी और इसकी कुल लागत 25000 करोड़ रुपये होगी | आइये देखें कि ऐसे कौन-कौनसे तर्क और कारण है, जो कि इस योजना को अव्यवहारिक और अवांछित साबित करते है | ये सभी तर्क केवल आंकड़ों के बदलाव के साथ भोपाल या इसी श्रेणी के अन्य शहरों पर भी लागू होते हैं |
दिल्ली की 125 लाख की आबादी में से प्रतिदिन औसतन 15 लाख लोग मेट्रो से यात्रा करते हैं | जबकि इंदौर शहर की कुल आबादी 25 लाख है और इस पर दावा किया गया है कि प्रतिदिन 13 लाख लोग यात्रा करेंगे | दिल्ली के उदहारण से सीखें तो केवल 12% आबादी के रोज यात्रा करने की अपेक्षा करनी चाहिए जबकि यहाँ उम्मीद बताई गई है कि 52% लोग मेट्रो में ही यात्रा करने लगेंगे | स्पष्ट है कि ऐसी अफ़लातूनी आशा इसलिए की गई है, क्योंकि इससे कम संख्या बताने पर मेट्रो की योजना आर्थिक मापदण्डो पर या लागत-लाभ की दृष्टि से फ़ैल हो जाती | अर्थात ऐसे मध्यम आकर के शहरों में मेट्रो 20-25 साल तक अरबों के घटे के साथ चलेगी जिसका बोझ जनता पर आएगा |
यह योजना कितनी महँगी है, इसके आंकड़े तो चौंका देने वाले हैं | यदि 104 की.मी. मेट्रो की लागत 25000 करोड़ है तो इसका अर्थ है कि इसकी प्रति कि.मी. लागत करीब 24 करोड़ 39 लाख रु. होगी | जापानी कम्पनियाँ 1500 करोड़ रु. का कर्ज देगी, जिसकी शर्तों की जानकारी नहीं दी गई है | इसकी किश्तों के भुगतान के अलावा योजना के वार्षिक रख-रखाव का खर्च करीब 2400 करोड़ आएगा | इस विशाल लागत से चलने वाली ट्रैन यत्रियों के लिए कैसे किफायती होगी ? और यदि इससे यात्रा को बस-यात्रा से सस्ता बनाया गया तो तय है कि उसकी अधिकांश लागत आम जनता से वसूली जायेगी | विशाल लागत की बात यहीं ख़त्म नहीं होती है | 25000 करोड़ में शहर कि बेशकीमती जमीनो की लागत को शामिल नहीं किया गया है | उस पर माना यह गया है कि परियोजना 5 साल के अंदर पूरी हो जायेगी, जबकि ऐसा होने की सम्भावना नहीं के बराबर है | इंदौर के BRTS का उदाहरण हमारे सामने है; जिसकी लागत का शुरुआत में अनुमान मात्र 98 करोड़ रु. लगाया गया था जो कि योजना के पुरे होने पर 227 करोड़ तक पहुँच गया; उसमें भी 108 करोड़ रु.उन जमीनों की कीमत शामिल नहीं है, जो कि लोगों ने स्वेच्छा से दे दी थी |
सर्वाधिक विचारणीय मुद्दा तो यह है कि मेट्रो जैसी उच्च-लागत की योजना इंदौर जैसे शहरों की प्राथमिकताओ में फ़िलहाल नहीं आती है | यहाँ उसके पहले इतना कुछ जरुरी चाहिये कि यदि मेट्रो-ट्रैन का विशाल बजट उन सुविधाओं पर खर्च हो तो यह शहर देश के सबसे स्मार्ट और खुशहाल शहरों में अग्रणी हो जाये | हर मानव-बसाहट की तरह पानी, सड़क, बिजली तो हमारी प्राथमिकता अभी-भी बनी हुई है | उनके बाद ड्रैनेज, अस्पताल, स्कूल, पुलिस-थानो, आँगन-वाड़ीयो, बागों और बाज़ारों की दशा सुधारना जैसी महत्वपूर्ण प्राथमिकताओं पर हमें बहुत कुछ करना है, जिनके बिना यदि यह शहर स्मार्ट होने का दावा करेगा तो वह हास्यास्पद होगा | जबकि इन पर अनुमानतः मात्र कुल 5000 करोड़ तक का ही खर्च आएगा |
चौथी बात यह है कि विशेषज्ञों के अनुसार शहर की वर्तमान यातायात की जरूरतों के लिये मेट्रो से बेहतर और किफायती वैकल्पिक योजना सिटी बसों के व्यवस्थित नेटवर्क की हो सकती है | यदि करीब 600-700 बसें मात्र 700-800 करोड़ की लागत से चलाई जाये तो इंदौर शहर में एक पूर्ण-सक्षम लोक-परिवहन व्यवस्था बन सकती है | यह योजना बिना विवादों या तकलीफों के और कम समय में लागु हो सकती है | पांच साल में मेट्रो चलने लगेगी, यदि इस ख्याली पुलाव के भरोसे सिटी बसों की कोई योजना नहीं बनाई जाती है, तो यह सोच शहर की बिगड़ती यातायात व्यवस्था को एक्सटेंशन दे देने और अधिक बिगाड़ देने वाली महाभूल होगी | लेकिन इन सभी तर्कों का आशय यह नहीं है कि इंदौर जैसे शहरों को कभी मेट्रो जैसा लोक-परिवहन नहीं चाहियेगा |
जरूर चाहियेगा, जबकि इसकी आबादी दोगुनी से अधिक हो जायेगी और यह वाकई एक मेट्रो-सिटी हो जायेगा | अर्थात आज से कम-से-कम 10 साल बाद; जिसके लिए योजना बनाने की जरुरत 2025 के बाद कभी भी उचित महसूस की जा सकती है | आशय यह कि आज तो शहर के योजनाकारों को इसकी मुलभुत प्राथमिकताओं को चुस्त-दुरुस्त करके इसे वाकई स्मार्ट और खुशहाल शहर बनाने पर ही पूरा ध्यान देना चाहिए; न कि मेट्रो जैसा (फ़िलहाल) सफ़ेद हाथी लाने पर | हाँ, एक सुझाव फिर भी विचारणीय है कि प्रयोग के तौर पर हम यदि 20-30 कि. मी. के चुनिंदा मार्ग पर मेट्रो चलाने की योजना आज बनाये, तो शायद 2021 तक जब यह वाकई चलने लगेगी तो सफल साबित हो सकती है |
ऐसा एक मार्ग एयरपोर्ट से सुपर कॉरिडोर के पास से होता हुआ, उज्जैन रोड व ए-बी रोड को जोड़ने वाला हो सकता है, जो शहर के मध्य व्यस्त भाग से नहीं गुजरे | यह प्रयोग भी तभी किया जाये जब हमें इसके लिए पूंजी जापान या इंग्लैंड से बहुत आसान या सहनीय शर्तों पर मिल रही हो | इसकी सफलता के बाद ही अन्य बड़े रूट पर मेट्रो चलने के बारे में सोचा जाना चाहिये | * हरिप्रकाश 'विसंत'