सोशल मीडिया क्रांति; क्या इंटरनेट यूज़र ही बन गया है अब प्रोडक्ट???.................
सोशल मीडिया क्रांति; क्या इंटरनेट यूज़र ही बन गया है अब प्रोडक्ट???.................
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"जानकारियाँ बहुरंगी होती हैं, किसी के लिए फिज़ूल तो किसी के लिए विस्फोटक होती हैं" – एक प्राचीन कहावत 


“अभिव्यक्ति”, यह सिर्फ एक शब्द ही नहीं, यह अन्तःकरण की एक मार्मिक आवश्यकता भी है। द्वेष हो या द्वंद, प्रफुल्ल हो या मद... अभिव्यक्ति स्वतः ही आकार लेती है। अल्फ़ाज अभिव्यक्ति का प्रत्यक्ष माध्यम है तो मौन अप्रत्यक्ष। दोनों ही माध्यम अलग-अलग अवस्थाओं में अलग-अलग भावों को अभिव्यक्त करते हैं, किन्तु दोनों का मूल एक ही शब्द में निहित है, ‘अभिव्यक्ति’। 


मानव क्रम-विकास की ही तर्ज पर विज्ञान और तकनीकी कौशल भी विकसित होता चला गया। इसी श्रंखला में आई एक ऐसी क्रांति जिसने अभिव्यक्ति को एक बड़ा आधार प्रदान किया। यह क्रांति थी सोशल मीडिया। अपने विचारों को रखने की, अभिव्यक्त करने की एक अद्भुत शक्ति सोशल मीडिया के रूप में हर परिवार का हिस्सा बन गई। एक नए आधुनिक युग का आरंभ हुआ जिससे कई सार्थक अपेक्षाएँ की गईं। किन्तु स्वार्थ परायणता यहाँ भी घर कर गई। फ़ेसबुक से 5 करोड़ लोगों की जानकारी चोरी कर ली गई। या शायद चोरी करने दी गई। 


चोरी करने वालों में डेटा वैज्ञानिक, मनुष्य स्वभाव समझने में लगे मनो विश्लेषक, राजनीतिक आकलन करने वाले विद्वान शामिल रहे। उद्धेश्य था निजी जानकारियों को एकत्र कर उन्हें बेचना व जानकारियों का बड़े व्यावसायिक और राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल करना। इस दूषित कृत्य का मुख्य आधार बना फ़ेसबुक। यहाँ यह सवाल तर्कसंगत है कि दुनिया की आठवीं सबसे बड़ी लिस्टेड कंपनी के मालिक मार्क जकरबर्ग को भी आखिर धन लोलुपता क्यों लील गई? शायद आठवें से पहले स्थान पर पहुँचने की महत्वकांक्षा उन्हें यह करने पर विवश कर कर गई। इंसानी फितरत है। लाभ सदैव ही प्रिय होता है।


इसी प्रिय लाभ की जद्दोजहद में रत हमारे राजनीतिज्ञों ने भी मुद्दे को भुनाने मे कसर नहीं छोड़ी। भाजपा और कांग्रेस जैसी प्रमुख पार्टियों ने एक दुसरे पर कैम्ब्रिज एनालिटिका से सेवाएँ लेने का आरोप लगाया। फिर हँगामा मचा कि कैम्ब्रिज एनालिटिका की सहायक कंपनी एससीएल ने देश की जातियों पर व चुनाव में जातिगत समीकरणों के प्रभाव पर शोध किया। इसे देश को जातियों के आधार पर तोड़ने का ब्रिटिश कुप्रयास कहा गया। किन्तु क्या कैम्ब्रिज एनालिटिका को हमें जातीय आधार पर बांटने की जरूरत है? क्योंकि हमारी राजनीतिक पार्टियां स्वतन्त्रता के समय से ही हमें बाँट चुकी हैं। गौरतलब है कि कैम्ब्रिज एनालिटिका का डोनाल्ड ट्रम्प की चुनावी जीत मे खासा योगदान माना जा रहा है और यह मुद्दा इसलिए वैश्विक बना क्योंकि फेसबुक पर अमेरिकी चुनाव को प्रभावित करने का आरोप लगाया गया है।


इंटरनेट, जहां सबकुछ फ्री है, आज वहाँ यूज़र ही उत्पाद बन कर रह गया है, यानी उसे ही बेचा जा रहा है। इंटरनेट से चुराये डेटा का विश्लेषण कर यूज़र के स्वभाव व उसकी वरीयताओं का पता लगाया जा रहा है, फिर उसे किसी बड़े राजनीतिक या  व्यावसायिक उद्धेश्य की पूर्ति स्वरूप फेक न्यूज़ या प्रभावित करने वाली सामग्री खुले आम परोसी जा रही है। अब सवाल उठता है कि क्या इसका विरोध होना चाहिए? निःसंदेह इस बात का विरोध किया जाना चाहिए क्योंकि यह कृत्य हमें बरगलाने, हमारे विश्वास को तोड़ने और भ्रमित करने के लिए किया जा रहा है। हम सभी को इस पर आवाज़ उठाने की जरूरत है कि एक ऐसा कानून बने जो यह सुनिश्चित करता हो कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स हमारा डेटा किसी को नहीं देंगे व स्वयं भी उसका दुरुपयोग नहीं करेंगे।


राजनीतिक पार्टियों द्वारा अपने स्वार्थ के लिए कैम्ब्रिज एनालिटिका जैसी कम्पनियों के सहयोग से यूज़र का गोपनीय डाटा चुराना, एक बहुत ही गंभीर मसला है। आज समूचा इंटरनेट पर्दे के पीछे छिपे अनाम लोगों द्वारा संचालित है, जो अपने आप में एक वायरस है और जिसका वेक्सीन बनाना बेहद जरुरी है। कईयों की कोई वास्तविक पहचान ही नहीं है। इसे निश्चित ही डिजिटल युग की एक कमी कहा जाएगा। कोई भी कहीं से भी घृणित, अश्लील, फेक या भ्रामक बातें इंटरनेट पर फैला देता है और बचा भी रहता है। लूप होल्स यानी कि तकनीकी खामियाँ, जिनकी वजह से इंटरनेट का ऐसा दुरुपयोग सहज हो गया है। इसीलिए तो इन्टरनेट आतंकियों का एक बड़ा हथियार बन चुका है। लूप होल्स के कारण ही आज कैम्ब्रिज एनालिटिका जैसे हजारों आपराधिक प्रवृत्ति वाले संगठन इंटरनेट पर फैले हुए हैं। हमारे देश के परिपेक्ष्य में ही लें तो सोशल मीडिया के दुरुपयोग से हमारे यहाँ कई स्थानों पर हिंसा फैली है, दंगे भड़के हैं, विद्रोहों ने जन्म लिया है। बंगाल, उत्तरप्रदेश, कश्मीर, केरल, गुजरात.... आखिर कौन सा क्षेत्र अछूता रहा है? 


डेटा लीक के विरोध स्वरूप फेसबुक पर #डिलीटफेसबूक का अभियान छेड़ा गया । किन्तु क्या इस अभियान से वाकई कोई फर्क पड़ेगा। फेसबुक अब लोगों की जीवन शैली का एक अहम हिस्सा बन चुका है । एक लत पड़ चुकी है। जिसे त्यागना, ड्रग्स त्यागने से भी ज्यादा पीड़ा दायक है। वो भी ऐसी दशा में जब हमारे देश में एक कहावत है कि – “समझ नहीं आता इंटरनेट फ्री है या इंसान” चरितार्थ होती दिख रही है। तो फिर क्या करें, क्या इंटरनेट पर कनेक्टेड रहना छोड़ दें? या कुछ और?


हमें इंटरनेट पर बने रहना होगा, हटना पलायन होगा। हमें जिम्मेदार सोशल मीडिया और सुरक्षित इंटरनेट के लिए संयुक्त प्रयास करने होंगे। हमें निश्चित ही जागने की जरूरत है, आज डेटा लीक हुआ है, कल कहीं हमारी स्वायत्तता, हमारी निजी अभिव्यक्ति ना लीक हो जाए।

विश्व काव्य दिवस: शब्दों मे गूँथे हुए भावों की अभिव्यक्ति, मेरी कविता........

 

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