देश भर में मनाया जा रहा है खुशियों से भरा दीपों का उत्सव...
देश भर में मनाया जा रहा है खुशियों से भरा दीपों का उत्सव...
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सुरक्षित और खुशियों से भरी दीवाली की शुभकामनाओं के साथ शुरुआत करते है। ये तो हम सभी जानते है कि श्री राम जी के 14 वर्ष के कठिन वनवास के बाद अयोध्या लौटने के बाद अयोध्यावासियों ने पूरे नगर में दीप जलाया था, तब से हर साल हम सब आज के दिन दीप जलाते है और मुँह मीठा कर एक दूसरे की मंगल कामना करते है। दीवाली के एक दिन पहले धनतेरस के दिन धन के देवता कुबेर की और आयुर्वेद की देवी धनवंतरि की पूजा करते है, आस यही होती है कि इससे साल भर घर धन-धान्य से भरा रहे और सभी निरोग रहे।

वर्तमान समय की मांग भी है कि हम धनवंतरि की पूजा करे और खुद को कम से कम मन से ही उनके सुपुर्द कर निश्चिंत रहे। दीपावली के दिन सुख-समृद्धि और धन की देवी लक्ष्मी की पूजा होती है। लक्ष्मी के साथ साथ उनके मानस-पुत्र गणेश जी की भी पूजा होती है, क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि लक्ष्मी जी अपने वाहन उल्लू पर बैठकर आतीं हैं अर्थात धन अपने साथ कई बुराइयों को भी लेकर आता है। आखिर यही तो भारत के गौरवशाली इतिहास को और अधिक समृद्ध बनाता है।

सारे पर्वों का मकसद यही है कि दिन रात की इस भागदौड़ के बीच अपनों के साथ सुकून भरा पल बिताए और कुछ उनकी सुने और कुछ अपनी सुनाए। बचपन से मैंने अपने परिवार में यही सीखा है। हम सबने यही सीखा है। पर आज पटाखे की शोर ने परिवार वालों के हँसी-ठहाके को कम कर दिया है। चाइनीज और डिस्को लाइट्स ने दिए की प्यारी चमक को धूमिल कर दिया है। पकवानों की जगह बाजारु मिठाइयों ने ले रखा है। इंसान, इंसानों से ही मिलने से कतराने लगे है। वाट्सएप और फेसबुक ने जहाँ दूरदराज वालो से मिलवाया तो वही अपनों से ही दूर कर दिया। अब सारे पकवान मेरे फोन पर ही आ जाते है।   

लाखों-करोड़ो के कारोबार वाले इस पटाखे को बैन करने की अरदास लेकर 3 बच्चे सर्वोच्च न्यायलय के दरवाजे पर गए थे कि पटाखों पर रोक लगाई जाए। ये मासूम बस इतना चाहते थे कि पटाखे फोड़ने का स्थान और समय निर्धारित हो। पर उनकी मासूम आवाज दब गई। संघ वालों ने इसे भी हिंदुओं का अपमान बताया। उनका कहना था कि पटाखे भारत के आदिकाल से जलाए जा रहे है। फिर तो मैं अपने देश के इतिहास को ही नही जानती। सुप्रीम कोर्ट ने कहा प्रदूषण का कारण अकेले पटाखे ही नही है।

हम भारतीय हर मामले में फ्लेक्सिबल होते है, तभी तो विदेश जाकर भी हम दीवाली मनाना नही छोड़ते बल्कि उनके त्योहारों को भी अपना लेते है और उतने ही चाव से मनाते है। पहले दीवाली में पीतल, सोने-चाँदी खरीदे ताते थे। यह एक प्रतीक होता था। पर आज मार्केटिंग की इस दुनिया में हर चीज को लक्ष्मी का प्रतीक बताकर बेच दिया जाता है। रात के 2 बजे तक खरीदारी होती है पर तसल्ली एक छोटे से दिए को खरीदकर ही होती है। पटाखे कितने भी जला लो पर तसल्ली एक छोटे बच्चे को छुपकर मुँह में लड्डू भरे देखकर ही होती है। सुकून से भरे ये लम्हे कैमरे में नही, दिल के एक कोने में कैद होते है।

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