आज के दिन हुए थे 'आजाद' : जन्मदिवस विशेष
आज के दिन हुए थे 'आजाद' : जन्मदिवस विशेष
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आज 23 जुलाई है क्या आज का दिन आपको याद है? क्या नहीं याद है? आज की इस भागदौड़ भरी ज़िन्दगी में इंसान इतना उलझ गया है कि वह यह भी भूल गया कि जिस खुली फ़िज़ा में वह आज सांस ले रहा है यह किसी की अमानत है. कई लोगों ने इसके लिए अपनी जान दी है, अपना खून बहाया है, अपना सर्वस्य लुटाया है. और हम इंसान इतने बेगैरत हो गए कि उनका सम्मान तो दूर उन्हें याद करना तक भूल गए. आज का दिन अपने आप में बहुत ही महत्वपूर्ण दिन है. 23 जुलाई मतलब की देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्य लुटाने वाले और हमेशा "आजाद" रहने वाले "चंद्रशेखर आजाद" का जन्म दिवस. 

जी हाँ 111 साल पहले आज के ही दिन आज़ाद का जन्म पंडित सीताराम तिवारी और जगरानी देवी के घर भांवरा गांव में हुआ था. आज़ाद के जन्म पर किसी को नहीं पता था की एक दिन यह बालक बड़ा होकर अंग्रेजो का जीना हराम कर देगा, अंग्रेज़ो में इतनी दहशत भर देगा की वो सपने में भी 'आज़ाद' के नाम से थरथर काँप उठेंगे. 23 जुलाई 1906 को जन्मे आज़ाद का बचपन आदिवासी बच्चों के बीच बीता जहाँ उन्हें तीर कमान चलाने का और अचूक व अभेद निशाने का ज्ञान मिला. हलाकि यह बालक भी साधारण बच्चो की तरह जीवन जी रहे थे और इनकी माँ इन्हे संस्कृत में विद्वान् बनाना चाहती थी. उत्तरप्रदेश के बनारस में उन्हें 14 वर्ष की आयु में संस्कृत विद्यापीठ में दाखिला दिलवाया गया ताकि वो संस्कृत में महारत हासिल कर सकें. लेकिन नियति को कुछ और ही मंज़ूर था. जिसने जन्म लिया था भारत माँ को आज़ादी दिलाने के लिए, अंग्रेजो के अत्याचारों से मुक्त करने के लिए वह भला पढाई में कहा से दिल लगाता.

अंग्रेजो के दिन प्रतिदिन बढ़ रहे जुल्म और लोगो पर अत्याचार को लेकर पहले ही आज़ाद का दिल आक्रोश से भर गया था ऐसे में वह क्रांतिकारियों और गाँधी के प्रभाव में आ गए. अब उनका एक ही सपना था की भारत को आज़ाद करना. उन्होंने संकल्प लिया की वह हमेशा आज़ाद रहे हैं और मरते दम तक आज़ाद ही रहेंगे और भारत की आजादी के लिए अपने प्राण भी त्याग देंगे. इसलिए उन्होंने अपना नाम चंदशेखर तिवारी से चंद्रशेखर आजाद रखा. 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर में हुए जलियावाला बाग़ हत्याकांड से आज़ाद का आक्रोश और बढ़ गया. 1921 में गाँधी जी द्वारा अंग्रेजो के खिलाफ हुए असहयोग आंदोलन में आज़ाद ने हिस्सा लिया, यह वह दौर था जब आज़ाद गाँधी जी से अत्यधिक प्रभावित थे. लेकिन चौरा चोरी की घटना के बाद गाँधी जी ने अपना आंदोलन वापिस ले लिया जिससे सभी क्रन्तिकरियो को घोर निराशा हुई, आजाद भी बहुत अधिक निराश हुए.

इसके बाद आज़ाद ने अपना अलग और गर्म दल बनाने की ठान ली. अपना अलग दल बनाने के बाद आज़ाद की मुलाक़ात एक और महान देशभक्त भगत सिंह से हुई. 9 अगस्त 1925 को आजाद ने, राम प्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़ उल्लाह खान के सांथ काकोरी कांड को अंजाम दिया. काकोरी स्टेशन पर ट्रेन से जा रहे अंग्रेजो के ख़ज़ाने को आज़ाद ने लूट लिया. जिससे अंग्रेजो के पैरों तले जमीन खिसक गयी, अंग्रेज बौखला गए. इस काण्ड के बाद राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ उल्लाह खान, रोशन सिंह और राजेन्द लाहिड़ी को फांसी दे दी गयी. सन् 1927 में 4 प्रमुख साथियों के बलिदान के बाद उन्होंने उत्तर भारत की सभी क्रान्तिकारी पार्टियों को मिलाकर एक करते हुए हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसियेशन का गठन किया तथा भगत सिंह के साथ लाहौर में लाला लाजपत राय की मौत का बदला सॉण्डर्स का हत्या करके लिया एवं दिल्ली पहुँच कर असेम्बली बम काण्ड को अंजाम दिया।

असेम्बली बम काण्ड में भगत सिंह, सुखदेव और राज गुरु को फांसी की सजा सुनाई गयी. इन तीनो को छुड़ाने के लिए आज़ाद ने अथक प्रयास किये और इसके लिए आजाद नेहरू जी से भी मिले. 27 फ़रवरी 1931 के दिन आज़ाद नेहरू जी से मिलकर लौट रहे थे तो अल्फ्रेड पार्क में उन्होंने अपने एक मित्र सुखदेव राज से मुलाकात की. लेकिन किसी मुखविर ने इसकी सूचना अंग्रेजो को दे दी. एस०एस०पी० नॉट बाबर ने वहां पहुंच को समूचे पार्क को घेर लिया और बिना सूचना के आज़ाद पर गोली चला दी. एक गोली आज़ाद की जांघ पर लगी तो फ़ौरन आजाद ने पार्क में लगे एक पेड़ की ओट ले ली और अपने साथी को वहां से भगा दिया. फिर दोनों तरफ से फायरिंग का दौर शुरू हो गया. अंग्रेजी हुकूमत की पूरी फौज 'आज़ाद' पर दनादन गोलिया बरसा रही थी और एक 'आजाद' थे जो अकेले ही अंग्रेजो के पूरी फौज को संभाले हुए थी. 'आजाद' का खौफ इतना ज्यादा था और उनके अचूक निशाने के दर से किसी भी अंग्रेज की इतनी हिम्मत न हुई की वो उनके पास भी जा सके. 

पूरी अंग्रेजी सेना सिर्फ एक 'आजाद' के सामने मानो बौने साबित हो रहे थे, दोनों और से गोलियों की बारिश हो रही थी और अंग्रेजी सेना के सिपाही एक - एक करके ढेर हो रहे थे. अब अंग्रेजो की हिम्मत भी जवाब देने लगी थी और वहां आजाद की गोलियां भी ख़त्म हो गई, सिर्फ एक गोली आजाद ने पहले ही बचा के रख ली थी. आखिर कार जब 'आज़ाद' के पास केवल एक आखिरी गोली बची तब उन्होंने वह गोली अपने आपको मार ली और वीरगति को प्राप्त हुए. उनका कहना था कि वह आज़ाद जिए हैं और आज़ाद ही मरेंगे. जीते जी अंग्रेज उन्हें छू भी नहीं सकते और ऐसा ही हुआ. उनके प्राण त्यागने के बाद भी अंग्रेज़ो में 'आजाद' का इतना खौफ, इतना भय था कि वह उनके पास जाने तक में डर रहे थे. जब आज़ाद की पिस्तौल ने गोलियां उगलना बंद कर दिया और पेड़ से टिक कर वह अपने प्राण त्याग चुके थे तब भी अंग्रेज़ों ने उन्हें घेर कर उन पर अंधाधुंध फायरिंग की जब तक उनका पूरा शरीर छलनी ना हो गया, क्योकि अंग्रेज जानते थे की यदि आजाद में एक भी सांस भी बाकि रही तो ना जाने कितने गोरे अपनी जान से हाँथ धो बैठेंगे. आजाद की इस शहादत पर मौत के भी आंसू निकल पड़े. 

'आजाद' के बलिदान की खबर जब लोगों तक पहुंची तो हर युवक के दिल में आक्रोश भर गया और जो 'आजाद' ने सपना देखा था वह उनके बलिदान के 16 वर्षो बाद पूर्ण हुआ. 15 अगस्त 1947 का वह दिन जब प्रत्येक भारतवासी खुली हवा में सांस ले रहा था, तब सभी के दिल में 'आजाद' के लिए सम्मान था, सभी की आँखे नाम थी, सभी भारत के इस वीर सपूत को याद कर रहा था. 'आजाद' जीते जी तो यह दिन नहीं देख सके लेकिन वह सभी के दिलों में हमेशा के लिए अमर हो गए.... 

लौट कर आ सकें ना जहाँ में तो क्या, याद बनकर दिलों में तो आ जायेगे.... 

आज भारत के इस महान और वीर सपूत के जन्मदिवस पर हम श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं.. 
जय हिन्द, जय भारत...

आजाद थे वे आजाद ही रहे !

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