कोयला श्रमिको ने लिखी अपने ऊपर हुए जुर्म की कहानी
कोयला श्रमिको ने लिखी अपने ऊपर हुए जुर्म की कहानी
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करीब बीस सामूहिक कब्रें, हर एक में एक-एक हजार शव. फिर भी कब्र कम पड़ गईं और शवों को यूं ही पहाड़ियों और गड्ढों में फेंका जाने लगा. इनमें बच्चे भी थे. और फिर, कुत्तों और भेड़ियों का झुंड पहाड़ियों के पीछे से आता था और इन शवों पर टूट पड़ता था. तिल-तिल कर मरे उन लोगों को मौत के बाद भी सुकून नसीब नहीं हुआ. भयावह जुल्म और अकथनीय पीड़ा की यह दर्दभरी दास्तान महज बानगी है चीन के उन कोयला खान श्रमिकों की जिंदगी की जिन्हें सात दशक पहले चीन पर हमले के दौरान जापानी फौजों ने गुलाम बना लिया था. गुलामी की यह रोंगटे खड़ी कर देने वाली दास्तान अब एक किताब की शक्ल में सामने आने जा रही है. जापान से हुए इस युद्ध के 70 साल पूरे होने के मौके पर यह किताब प्रकाशित हो सकती है.

जापानी सैनिकों ने यातना की यह दास्तान उत्तरी चीन के शांक्सी प्रांत के डेटांग शहर में लिखी थी. इसी पर किताब लिखी गई है और इसका लेखक कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि इस जघन्य संहार में बच गए कोयला खान श्रमिकों का अनुभव है. किताब में ऐसे 180 खनिकों के अनुभव को शामिल किया गया है. 82 साल के गाओ हुआइजू उन चंद खुशकिस्मत खनिकों में हैं जो इस नरसंहार में बच गए थे. उस वक्त बच्चे थे. महज 8 साल के. जो जुल्म उनके खनिक पिता पर ढहाया गया, उससे कम गाओ ने नहीं सहा था. इस किताब में उनका काफी योगदान है. वह कहते हैं, "जापानी हमले के 70 साल पूरे होने जा रहे हैं. यह हमारी कहानी सुनने के लिए एक अच्छा समय है. यह बात 2003 की है.

जापानी सेना के लिए कोयला निकालने वाले गाओ और उन्हीं के जैसे 300 अन्य कोयला खनिकों ने डेटांग की कोयला खानों और वहां खनिकों की सामूहिक कब्रों के इतिहास को याद रखने और उसे अगली पीढ़ी तक पहुंचाने के लिए इंस्टीट्यूट की स्थापना की थी. आज इन 300 लोगों में से 38 जिंदा हैं.सभी की उम्र 78 से 94 के बीच है. गाओ कहते हैं, "उस हादसे में बचने वाले अब गुजर चुके हैं या गुजर रहे हैं लेकिन हमारा सौभाग्य है कि हमारी यादें शब्दों में, तस्वीरों में और वीडियो क्लिप में जिंदा हैं. खनिकों के इंस्टीट्यूट ने बीस सामूहिक कब्रों की तलाश की थी. सभी में औसतन एक-एक हजार शवों के अवशेष मिले. 1937 से 1945 के बीच जापानियों ने लगभग 1.4 करोड़ टन कोयला चीन से लूटा था.

इस काम के लिए करीब 60,000 चीनी खनिकों को उन्होंने अपना गुलाम बना लिया था. इस नरसंहार को हुए आज 73 साल बीत चुके हैं. लेकिन, आज भी गाओ उसकी याद आते ही रो पड़ते हैं. 1942 में 8 साल की उम्र में अपने पिता के साथ उन्हें बीजिंग के पास जापानी सैनिकों ने एक ट्रक में ठूंस दिया था. दो दिन के सफर के बाद वे डेटांग पहुंचे और फिर शुरू हुआ यातनाओं का नारकीय सिलसिला. गाओ बताते हैं, "हमारे एक छोटे से कमरे में सौ-सौ लोग होते थे . कई बार हम इतने भूखे हो जाते थे कि चूहा मारकर खाना पड़ता था. 85 साल के एक अन्य खनिक वांग देबाओ ने कहा, "खान में हम अपने रोजाना वाले कपड़े पहनकर जाते थे. कोई भी सुरक्षा उपकरण हमारे पास नहीं होता था. भागना नामुमकिन था. जुल्म में मजा लेने वाले गार्डो के साथ-साथ शिकारी कुत्ते हम पर नजर रखते थे.

भाग भी जाते तो भी बच नहीं पाते. ये लोग बताते हैं कि बीमारी और मौत आम बात थी. कोई उम्मीद नजर नहीं आती थी. बीमार खनिकों को एक अलग जगह पर छोड़ दिया जाता था. वहां वे अपनी मौत का इंतजार करने के अलावा और कुछ नहीं कर सकते थे. शुरू शुरू में शवों को कफन दिया जाता था. लेकिन फिर मौतें इतनी अधिक होने लगीं कि जापानियों ने शवों को पहाड़ियों पर और गड्ढों में फेंकना शुरू कर दिया. गाओ बताते हैं, "सिर्फ शवों को ही नहीं, बीमार खनिकों को भी ऐसे ही पहाड़ियों-गड्ढों में मरने के लिए छोड़ दिया जाता था. इनमें बच्चे भी होते थे. गाओ कहते हैं, "आप कल्पना नहीं कर सकते. मैंने देखा है. पहाड़ियों के पीछे से सौ-सौ भेड़ियों का झुंड आता था और हम उन्हें शवों को खाते देखते थे. महामारी फैलने के डर से बाद में जापानी शवों को जलाने लगे थे. 73 साल पहले की हैं यह सभी बातें. लेकिन, इन्हें बताते हुए गाओ आज भी बिलख पड़ते हैं.(आईएएनएस)

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