स्त्री सिर्फ शारीरिक रूप से कमज़ोर है लेकिन अध्यात्म से नहीं
स्त्री सिर्फ शारीरिक रूप से कमज़ोर है लेकिन अध्यात्म से नहीं
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स्त्रियां शारीरिक रूप से पुरुषों से कमजोर होती हैं, सिर्फ इसीलिए पुरुषों ने उन्हें अपने से मनोवैज्ञानिक रूप से कमजोर बनाने और आध्यात्मिक रूप से सशक्त न होने देने के लिए सब कुछ किया, ताकि वे आर्थिक रूप से ताकतवर न बन सकें। हजारों सालों से लोगों की यही मानसिकता रही है। यह सब केवल इसलिए हुआ, क्योंकि स्त्रियां शारीरिक रूप से पुरुषों से कमज़ोर होती हैं। और कोई तरीका नहीं है, जिससे पुरुष स्त्री के ऊपर अपनी श्रेष्ठता का दावा कर सके, सिवाय इसके कि वह शारीरिक रूप से ज्यादा मजबूत है, उसकी मांसपेशियां ज्यादा शक्तिशाली हैं। ऐसा हजारों सालों से चला आ रहा है। मेरे विचार में यह बहुत ज्यादा हो गया है। अब वक्त आ गया है कि लोग खड़े हो जाएं और इस मामले में कुछ करें। जब तक पुरुष महिलाओं का आदर करना नहीं सीख जाते, तब तक वे खुद को कभी नहीं जान पाएंगे। इसके अलावा, और कोई तरीका नहीं है, क्योंकि उसका आधा अंश वही है।

भारतीय अध्यात्म हमेशा से पुरुषों और स्त्रियों का एक समृद्ध मिश्रण रहा है, जिन्होंने अपनी चेतना की ऊंचाइयों को प्राप्त किया है। जब आंतरिक प्रकृति की बात आती है, तो बिना किसी संदेह के यह साबित हो चुका है कि स्त्री उतनी ही सक्षम है जितना कि पुरुष। जिसे आप स्त्री या पुरुष कहते हैं, वह केवल खोल होता है। आत्मा तो एक ही है। या तो आप पुरुष का खोल पहने हैं या फिर स्त्री का। बात बस इतनी ही है।

बाहरी खोल यह तय नहीं करता कि आपकी आध्यात्मिक क्षमताएं क्या होंगी। शायद जैविक रूप से कुछ घाटा हो सकता है, लेकिन अब हम देखते हैं कि मनोवैज्ञानिक रूप से स्त्रियां ज्यादा समर्थ हैं। वैदिक काल से ही ऐसी अनेक स्त्रियां रही हैं जो महान संत हैं, जिन्होंने चेतना की ऊंचाइयों को हासिल किया। पूजा के प्रारम्भिक रूपों की शुरुआत हमेशा ईश्वर को मां के रूप में पूजने से की गई। परमात्मा को मां का रूप माना गया। तब से लगातार ऐसा होता आ रहा है। आज भी मां के रूप में देवी पूजा, देवताओं की पूजा से ज्यादा प्रबल है। आज भी एक अज्ञानी मनुष्य जब हर भगवान से निराश हो जाता है तो शीघ्र फल पाने के लिए देवी या काली मंदिर जाता है।

जैसे आज ब्राह्मण जनेऊ पहनते हैं, उसी तरह से वैदिक काल में स्त्रियां भी जनेऊ पहनती थीं। वे भी जनेऊ पहनने के योग्य थीं, क्योंकि उस वक्त जनेऊ पहने बिना वेद और उपनिषद पढऩे की अनुमति नहीं थी। अध्यात्म केवल पुरुषों के लिए ही उपलब्ध नहीं था, बल्कि स्त्रियां भी जनेऊ पहनती थीं और अध्ययन करती थीं। ऐसी कई महान संत-साध्वी हुई हैं। इनमें से मैत्रेयी भी एक हैं।

मैत्रेयी : जिन्होंने याज्ञवल्क्य को हरा दिया
एक बार की बात है। राजा जनक के दरबार में आध्यात्मिक वाद-विवाद चल रहा था, जिसमें भाग लेने के लिए उस राज्य के सभी संत-महात्मा एकत्र हुए। इसे आप सत्य क्या है और क्या नहीं, इसका पता लगाने की एक प्रतियोगिता भी कह सकते हैं। जनक सिद्ध पुरुष थे, एक ऐसे राजा जो अपने भीतर सत्य का साक्षात्कार कर चुके थे। इसलिए उन्होंने ऐसा आयोजन किया कि अध्यात्म मार्ग पर चलने वाला राज्य का हर व्यक्ति उसमें भाग ले सके। जैसे-जैसे वाद-विवाद बढ़ता गया, वह गूढ़ होता गया। शुरू में सभा में मौजूद हर व्यक्ति ने तर्क -वितर्क में भाग लिया, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, लोग बैठकर बस नजारा देखने लगे। दरअसल, कोई भी यह समझने की स्थिति में नहीं था कि वास्तव में चल क्या रहा है क्योंकि पूरा वाद-विवाद बेहद गूढ़ हो चुका था। किसी को समझ नहीं आ रहा था कि हो क्या रहा है। अंत में केवल दो ही लोग बचे।

एक याज्ञवल्क्य और दूसरी मैत्रेयी                                                                                                       दोनों के बीच कई दिनों तक वाद-विवाद चलता रहा। बिना सोए, बिना खाए, यह वाद-विवाद बस चलता ही गया। हर व्यक्ति बैठकर यह नजारा देख रहा था, पर कोई यह नहीं समझ सका कि क्या चल रहा है क्योंकि पूरी चर्चा गूढ़ हो गई थी। अंत में याज्ञवल्क्य मैत्रेयी के प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सके। याज्ञवल्क्य अपने आध्यात्मिक तेज और तीक्ष्ण बुद्धि के लिए पूरे राज्य में विख्यात थे, फिर भी मैत्रेयी के प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सके। उन्होंने क्रोधित और उत्तेजित होकर मैत्रेयी से कहा कि अगर उसने एक भी प्रश्न और पूछा, तो उसके छोटे-छोटे टुकड़े कर दिए जाएंगे। इस पर जनक बीच में आ गए।

उन्होंने याज्ञवल्क्य से कहा, ‘‘हालांकि आप सब कुछ जानते हैं, फिर भी आपको भीतर इस ज्ञान का जीवंत अनुभव नहीं हुआ है और यही वजह है कि आप मैत्रेयी के प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पाए।’’ इसके बाद जनक ने भरे दरबार में मैत्रेयी को सम्मानित किया। याज्ञवल्क्य को अपनी मर्यादाओं का बोध हुआ। वह मैत्रेयी के चरणों में जा गिरे और आग्रह किया कि मैत्रेयी उन्हें अपना शिष्य बना लें। मैत्रेयी ने उन्हें अपने पति के रूप में स्वीकार किया। उन्होंने कहा, ‘‘आप मेरे पति बन सकते हैं, शिष्य नहीं।’’ दरअसल, मैत्रेयी यह देख चुकी थीं कि कोई और आदमी इतना ऊंचा नहीं पहुंच पाया था। हालांकि याज्ञवल्क्य ने अभी भी वह नहीं पाया था, जो मैत्रेयी पा चुकी थीं, लेकिन उस समय मैत्रेयी को इतना पहुंचा हुआ दूसरा कोई और आदमी नहीं दिखा, इसलिए उन्होंने याज्ञवल्क्य को पति रूप में स्वीकार करने का फैसला किया। दोनों ने परिवार बसाया और कई सालों तक साथ रहे। वैदिक काल में जो क्रियाएं पुरुषों के लिए उपलब्ध थीं, उन्हें करने का स्त्रियों को भी बराबर का अधिकार था।

कुछ समय बाद एक दिन याज्ञवल्क्य मैत्रेयी से बोले, ‘‘इस संसार में मैं बहुत रह चुका। अब मैंने तय किया है कि मेरे पास जो भी है, उसे मैं तुम्हें दे दूंगा और अपने आप को पाने के लिए वन चला जाऊंगा।’’ मैत्रेयी ने कहा, ‘‘आपने यह कैसे सोच लिया कि मैं इन सांसारिक चीजों में रम जाऊंगी? जब आप सच्चे खजाने की खोज में जा रहे हैं, तो भला मैं इन तुच्छ चीजों के साथ क्यों रहूं? क्या मैं कौडिय़ों से संतुष्ट हो जाऊंगी?’’ फिर वे दोनों वन चले गए और सिद्ध प्राणियों की तरह अपना बाकी जीवन व्यतीत किया।

ऐसी कई कहानियां हैं, जो इस बात को साफ करती हैं कि वैदिक काल में अध्यात्म के मामले में स्त्रियां पुरुषों के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर चलती थीं। वह समाज पूरी तरह से व्यवस्थित था। जिस समाज में चीजें अच्छी तरह से व्यवस्थित होंगी, उसमें स्वाभाविक रूप से स्त्री का वर्चस्व होगा। वर्चस्व होना जरूरी नहीं है लेकिन वह हर तरह से पुरुष के बराबर होगी। जब कलह पैदा होता है, समाज छिन्न-भिन्न हो जाता है और लोग जगह बदलने लगते हैं, तो अपने अस्तित्व में बने रहना पहली प्राथमिकता बन जाती है और पुरुष बागडोर अपने हाथ में ले लेता है। ऐसी परिस्थितियों में स्त्री पुरुष पर ज्यादा निर्भर हो जाती है। जब जीवन बहुत स्थूल हो जाता है, बाहरी-तौर तक ही सीमित रह जाता है, तब स्वभावत: पुरुष प्रबल हो जाएगा, लेकिन जब जीवन बहुत सूक्ष्म बन जाता है, तब सच्चाई को जानने के लिए कई बार पुरुष को स्त्री की तरफ देखना पड़ता है। हो सकता है, यही एक कारण हो जिससे पुरुष हमेशा विवाद खड़े करता है, हर जगह ज्यादा-से-ज्यादा विवाद, क्योंकि यही एकमात्र तरीका है जिससे वह अपना प्रभुत्व बनाए रख सकता है।

विवश होकर स्त्रियों पर अंकुश लगाए गए
ईसा से 3000 साल पहले से जब से हम इतिहास को जानते हैं भारत में स्त्री पुरुष के समकक्ष थी। बाद में एशिया के मंगोलिया, मध्य चीन और इंडो-चीन जैसे कुछ भागों से जंगली कबीलों ने देश पर आक्रमण कर दिया। वे बाहर के लोग थे, जो पूरी तरह असभ्य थे। उनका तरीका था – चीजों को लूटकर अपने अधिकार में ले लेना और जीना। इस तरह कहीं-न-कहीं ऐसा वातावरण बनने लगा, जिसमें स्त्रियां धीरे-धीरे अपनी स्वतंत्रता खोने लगीं। आक्रमणकारी किसी भी चीज को लूटकर चले जाते थे, इसलिए पुरुष रक्षात्मक होने लगा। धीरे-धीरे यह रीति इतनी पक्षपातपूर्ण बन गई कि लोग नियमों को बदलने लगे और शास्त्रों और स्मृतियों को फिर से लिखने लगे। वेद श्रुति हैं; जिनमें परम सत्य की बात की गई है और जीवन को किसी भी तरह से नियमित नहीं किया गया है।

फिर लोगों ने स्मृतियां लिखीं और हम कह सकते हैं कि स्मृति का एक बहुत बड़ा भाग कई तरह से स्त्री को बांधकर रखने के लिए लिखा गया है। संभवत: एक तय समय तक यह एक विवशता थी, क्योंकि भाौतिक परिस्थितियां ऐसी थीं कि स्त्रियों पर थोड़ा अंकुश लगाना जरूरी था, लेकिन दुर्भाग्यवश उसे नियम बना दिया गया। श्रुति में स्त्रियों पर पहला अंकुश तब लगा, जब लोगों ने यह घोषणा कि स्त्री जनेऊ नहीं पहन सकती। ये सभी बातें एक बार में नहीं लिखी गई होंगी, इन्हें लिखने में वक्त लगा होगा। धीरे-धीरे लोग आगे बढ़े और कहने लगे कि स्त्री केवल एक ही तरीके से मुक्ति या अपनी परम प्रकृति को प्राप्त कर सकती है और वह है पति की सेवा करना। लोगों ने यह तय कर दिया कि दूसरा और कोई तरीका नहीं है।

वैदिक काल में कोई स्त्री जब चाहे अपने परिवार को छोड़ सकती थी। जैसी स्वतंत्रता पुरुष को प्राप्त थी, स्त्री को भी वैसी ही स्वतंत्रता हासिल थी। ऐसी कई घटनाएं हैं जब स्त्रियों ने बिना किसी सामाजिक दंड के ऐसा किया। समाज में यह स्वीकृत था। एक स्त्री जब चाहे अपना जीवन साथी चुन सकती थी। जब उसे यह महसूस होता कि अब वह इस जरूरत से ऊपर उठ गई है, तो वह उसे छोड़ देती थी, उसी तरह जैसे पुरुष करता था। पुरुष विवाह करता, दस-बीस साल तक विवाहित जीवन जीता और जब उसके मन में आध्यात्मिक बनने की प्रेरणा जागती, वह परिवार त्याग देता। ठीक इसी तरह स्त्री को भी यह अधिकार प्राप्त था। जब उसके अंदर आध्यात्मिक विकास करने की प्रेरणा जागृत होती, वह भी परिवार त्याग देती थी। वैदिक काल में यह पूरी तरह मान्य था।

बाद में किसी ने यह नियम बना दिया कि केवल पुरुष ही स्त्री का त्याग कर सकते हैं। जब पुरुष आध्यात्मिक बनना चाहता है, तो वह स्त्री का त्याग कर सकता है। हर आदमी को यह अधिकार है कि वह अपनी स्त्री का त्याग कर सकता है। सवाल उठता है कि अगर पुरुष स्त्री का त्याग करता है, तो परिवार की देखभाल कौन करेगा? ऐसे प्रश्नों के उत्तर कभी नहीं दिए गए। इन्हें ऐसे ही छोड़ दिया गया। अगर दोनों के पास एक सी आजादी है, तो बात ही अलग है। अगर एक ही व्यक्ति को आजादी है और दूसरे को नहीं, तो यह शोषण है। मेरे खयाल से ऐसे कानून के चलते बहुत कम स्त्री और पुरुष साथ में खुश रहे होंगे। दरअसल, दो लोग खुश और आनंद में तभी रह सकते हैं, जब वे स्वतंत्र रूप से मिलते हैं। जब वे बंधन में मिलते हैं, तो आप एक दासी से शादी करते हैं, जो जन्म से ही दासी है। आपने उसे केवल अपना दास बने रहने का प्रशिक्षण दिया और कुछ नहीं दिया। अब ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे आप अपने जीवन का आनंद ले सकें। हो सकता है, वह आपके लिए सुविधाजनक हो, आपकी जरूरतों को पूरा करे, लेकिन उसके साथ आप जीवन का आनंद नहीं ले सकते।

दुर्भाग्यवश आज बीसवीं सदी में भी यही हो रहा है। यह साफ कर दिया गया है कि जिस क्षण आप स्त्री के रूप में पैदा होती हैं, आपको यह मान लेना चाहिए कि आपका जन्म या तो अपने पिता या पति की सेवा करने के लिए हुआ है। इससे आगे आपके लिए और कुछ भी नहीं है। यह शिक्षा उन लोगों द्वारा दी जाती है जो अस्तित्व के अद्वैतवाद की बात करते हैं कि सब कुछ एक ही है, लेकिन एक स्त्री अल्प है, अपूर्ण है। मुझे पता नहीं कि यह उनके लिए कितना अर्थपूर्ण है। कोई भी व्यक्ति अद्वैतवादी नहीं हो सकता; अगर वह उस लैंगिक भिन्नता को भी स्वीकार नहीं कर सकता, जिससे वह पैदा हुआ है तो कोई भी व्यक्ति अद्वैत नहीं हो सकता। वह जानता है कि उसका अस्तित्व स्त्री पर निर्भर है और अगर वह उसे स्वीकार नहीं कर सकता, तो उसके लिए अस्तित्व की सभी द्वैत अवस्थाओं को स्वीकार करने का प्रश्न ही नहीं उठता।
स्त्री पूरे अस्तित्व का आधार है

यह अस्तित्व ही स्त्री पर निर्भर है। वास्तव में इस मानव अस्तित्व को कायम रखने में स्त्री को एक पुरुष की अपेक्षा बड़ी भूमिका अदा करनी है। पुरुष की भूमिका बहुत सीमित है। अगर वह स्त्री को स्वीकार नहीं कर सकता, तो मेरे विचार से या तो वह धूर्त है या निरा अज्ञानी। अधिकतर ऐसा धूर्तता के कारण होता है क्योंकि इसके कुछ फायदे होते हैं। जब इससे फायदा है, तो इसे क्यों छोड़ा जाए? यह उचित है या अनुचित, यह महत्वपूर्ण नहीं है। ‘‘जब मुझे फायदा होगा तो इसे छोड़ा क्यों जाए?’’ अगर यह मानसिकता नहीं जाती तो फिर कोई अध्यात्म नहीं है। यह अध्यात्म हो ही नहीं सकता।
यह सच्चाई है कि जो व्यक्ति देवी के मंदिर में जाकर साष्टांग प्रणाम करता है, वही घर लौटकर अपनी पत्नी को पीटता है। वह नादान हो सकता है लेकिन वह धूर्त भी है। धूर्तता के बिना ऐसा नहीं हो सकता। इसका मतलब यह नहीं है कि अब स्त्रियां भी बाहर जाएंगी और वही करेंगी जो पुरुष कर रहे हैं। फिर यह अश्लील हो जाएगा। यह पश्चिम में हो रहा है और कुछ हद तक यहां भी। स्त्रियां पुरुषों जैसा बनने का प्रयास कर रही हैं। अगर ऐसा होता है तो नुकसान और भी ज़्यादा होगा। अगर स्त्री अपने स्त्रीत्व को, अपनी स्त्रैण प्रकृति को खो देती है, तो वह कुरूप हो जाएगी। यह विचार कि स्त्री पुरुष की तरह बनना चाहती है, अपने आप में बीमार सोच है। वह पुरुष जैसी क्यों बनना चाहती है? क्योंकि कहीं-न-कहीं वह ऐसा सोचती है कि वह हीन है और पुरुष श्रेष्ठ।

स्त्रीत्व और पुरुषत्व बस दो गुण हैं
सद्‌गुरु: बात यह नहीं है। हीनता या श्रेष्ठता का प्रश्न केवल एक दूषित मन की उपज है। यह मात्र दो गुणों का प्रश्न है। ‘कौन हीन है और कौन श्रेष्ठ’ यह इसका प्रश्न नहीं है। जिस दिन स्त्री पैदा होती है, उसी दिन से आप यह तय करने लगते हैं कि उसे किसी चीज के साथ जूझने का मौका न मिले, है कि नहीं? यह सिर्फ विवाह के साथ ही नहीं है। जिस दिन वह पैदा होती है, आप उसी दिन से ऐसा करते हैं। हरेक पहलू के साथ, आप यह निश्चित कर देते हैं, ताकि उस पर एक दासी की मानसिकता थोपी जा सके। जब यह मेरे सामने घटित होता है, तो मुझे तकलीफ देता है। अब अगर आप यह सोचते हैं कि वह स्त्री जिसने आपको जन्म दिया है, हीन है तो आप श्रेष्ठ कैसे हो सकते हैं? तो फिर ऐसी संभावना उठेगी ही नहीं।

यह समस्या मात्र एक स्त्री और एक पुरुष के बीच नहीं है। यह समस्या सर्वव्यापी है। यह केवल एक स्थूल पुरुष के संबंध में नहीं है जो ऐसा सोचता है। आपने अपने जीवन को ही इस तरह का बना लिया है। आपने इसे अपने घर, समाज और सभी चीजों का मूल आधार बना लिया है। आपने इसे अपनी मूल संस्कृति और अपने धर्म का एक हिस्सा बना दिया है। ऐसा लगता है कि आपने इसे उस हद तक पहुंचा दिया है, जहां आपकी आत्मा प्रभावित हो गई है। युगों से यह बात हर व्यक्ति के मन में गहराई तक बैठ गई है। अब वक्त आ गया है कि लोग खड़े हो जाएं और कुछ करें।

एक बार विवेकानंद के पास एक समाज सुधारक आया और बोला, ‘‘यह बहुत अच्छी बात है कि आप भी स्त्रियों के समर्थक हैं, पर मुझे क्या करना चाहिए? मैं सुधार लाना चाहता हूं और सहायता करना चाहता हूं।’’ विवेकानंद ने कहा, ‘‘दूर रहो, तुम्हें उनके बारे में कुछ भी नहीं करना है। बस उन्हें अकेला छोड़ दो। उन्हें जो भी करना है, वे कर लेंगी।’’ सच में बस इतना ही है, जिसकी ज़रूरत है। ऐसा नहीं है कि पुरुष स्त्री को सुधारेगा। अगर वह उसे बस थोड़ी आजादी दे तो जिस चीज की जरूरत है, वह उसे खुद कर लेगी।

क्या स्त्री की गलती है
सद्‌गुरु: हां, कई बार। दुर्भाग्य से औरत ही अपनी सबसे बड़ी शत्रु है। स्नेह के क्षणों में, प्रेम के क्षणों में, पुरुष अपना प्रभुत्व तोड़ता है और स्त्री को आजादी देता है, लेकिन वहीं अगर कोई दूसरी औरत होती है, तो उसकी पूरी कोशिश यही होगी कि उस स्त्री के साथ ऐसा न हो। पूरी संस्कृति ने किसी न किसी तरह से उसके साथ ऐसा किया है और सदियों से उसमें तुच्छ चीज़ों से संतुष्ट होने की आदत डाली जाती रही है। मैत्रेयी ने याज्ञवल्क्य से ऐसा प्रश्न पूछा, लेकिन अधिकांश औरतें जीवन में तुच्छ चीजों से ही संतुष्ट हो जाती हैं। इसलिए पुरुष यह मान लेता है कि वह हीन है। वह जीवन में बड़ी चीज़ों की ओर जाता है और स्त्री तुच्छ आभूषणों की ओर, क्योंकि हमने ऐसा बना रखा है कि एक औरत केवल इन तुच्छ चीज़ों को ही चाहेगी। उसका पूरा जीवन बस इसी से संबंधित है। औरतों ने अपने आप को इसी तरह का बना लिया है और पुरुषों ने इसका समर्थन किया है।

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