मरकर भी न निकलेगी दिल से वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से खुशबू ए वतन आएगी। सरदार भगत सिंह कुछ इसी तरह के विचारों से भरे थे। जब उन्होंने असेंबली में पर्चे फैंके और बम धमाका किया तो अंग्रेजी राजसत्ता जिसके शासनकाल में सूर्यास्त होता ही नहीं था वह भी हिल गई। उसके कान खड़े हो गए और कई अंग्रेज अधिकारी कांपने लगे। लाहौर में स्कूली शिक्षा के दौरान उन्होंने यूरोप के विभिन्न देशों में क्रांतियों का अध्ययन यिा। 13 अप्रैल 1919 को होने वाले जलियावाला बांग हत्याकांड ने भगत को बदल दिया था।
वे अंग्रेज अधिकारी द्वारा निहत्थे भारतीयों पर गोलियां चलाए जाने की घटना से पसीज गए थे। उन्होंने अंग्रेजी राज सत्ता की नींव उखाड़ने की ठान ली। दरअसल उन पर महात्मा गांधी के विचारों का असर था। मगर जब असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया गया तो फिर क्रांतिकारियों ने अहिंसा के मार्ग को तेज कर लिया। काॅलेज के दिनों में जब 1923 में उन्होंने लाहौर नेशनल काॅलेज में एडमिशन लिया तो लाला लाजपतराय से उनकी भेंट हुई।
उनपर लालाजी का असर भी बहुत हुआ। मसलन राणा प्रताप, सम्राट चंद्रगुप्त और भारत दुर्दशा में हिस्सा लिया। उन्होंने पंजाब हिंदी साहित्य सम्मेलन की रखी गई निंबंध प्रतियोगिता में भाग लिया और जीत हासिल की। असहयोग आंदोलन के बाद हिंदू - मुस्लिम दंगे भड़क गए। ऐसे में उन्हें गहन निराशा का सामना करना पड़ा।
इस दौरान उन्होंने धार्मिक विश्वासों को छोड़ दिया। वे एक अच्छे अध्येता और लेखक भी थे। उनहोंने अपना निबंध लिखा जिसका शीर्षक था व्हाई एम एन एथीस्ट। बाद में भगत सिंह कानपुर चले गए। जहां उन्होंने अपना जीवन भारत को स्वाधीन करने के लिए लगा दिया। बस यहीं से उनकी दिशा बदली और बाद में वे चंद्रशेखर आजाद जी के संपर्क में आए।
भगत सिंह जी को असंबली में बम फैंकने और पर्चे डालने के आरोप के कारण राजगुरू, सुखदेव के साथ फांसी की सजा सुनाई गई। उन्हें 24 मार्च 1931 को फांसी देने की तिथी तय की गई। मगर इस तारीख के 11 घंटे पूर्व 23 मार्च 1931 को ही उन्हें फांसी दे दी गई। इसके बाद कथिततौर पर उनके शव को जला दिया गया था। कुछ लोगों ने जब अधजली अवस्था में उनका शव देखा तो विरोध किया। जिसके बाद सारे देश में भगत सिंह को फांसी देने का विरोध हुआ। इस आंदोलन से अंग्रेजी राजव्यवस्था कमजोर हो गई और अधिकारी घबरा उठे।