तुम्हें जाना तो ये जाना...
तुम्हें जाना तो ये जाना...
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तुम्हें जाना तो ये जाना,
कि दिलों में ख़ूबसूरती है बाक़ी अभी..
तुम्हें समझा तो ये पाया,
कि दिलों से सब खेल जायें ये ज़रूरी नहीं..
होंगी वे तमाम कोशिश-ए-नाक़ाम,
की जो तलाश तुम-से किसी और की...
इक मुद्दत से मसरूफ़ थी
तुम्हारे तर्ज़-ए-करम में,
बयाँ करने का सलीका नहीं,
न ही चंद अल्फ़ाज़ के
तुम्हारी तारीफ़ में जो कुछ कहें ।
सूरत के तो सब धनी सीरत के इतने नहीं,
हों दिल में न छल कहीं तुम-सा देखा ही नहीं ।
इस दोज़ख से संसार में हैवानियत के बाज़ार में,
तुम शीतल बयार से संग मख़मली एहसास के ।
यूँ तो होता पुर-नूर चाँद हर रोज़ ही,
पर पूनम की रात मानों चार चाँद लगा देती
कुछ ऐसा हाल है किया एहसास मैंने भी..
नज़्में तो थीं तुम्हारे पहले भी, 
तुम्हारे आने पर ही हुई हों जैसे वे हसीं,
मैं बेख़बर रही..
कब तुम इतने ख़ास हुए पता नहीं,
और मेरी नज़्में तुम्हारी होती चली गईं..
अब आलम कुछ यूँ है,
तुम और बातें तुम्हारी
मेरी मुस्कुराहट का हैं सबब बन गईं ।
जो इक रोज़ होती गुफ़्तगू नहीं
दिन वो कटता ही नहीं ।
इक आरज़ू है यही
हिस्से आये हमारे भी,
जो निहारें तुम्हें अपलक कभी
तन्हा बैठे हम-तुम कहीं । 
~ प्रेरणा गौर

जिसकी न सीमा हो और न कोई उपमा हो, वह ही है "माँ"।

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