नमाज़ पढ़कर निकले और मंदिरों पर कर दिया हमला, क्या ये मस्जिद में सिखाया गया?

नमाज़ पढ़कर निकले और मंदिरों पर कर दिया हमला, क्या ये मस्जिद में सिखाया गया?
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ढाका: बांग्लादेश के चटगांव में हाल ही में एक हिंसक घटना घटी, जिसमें जुमे की नमाज के बाद कट्टरपंथियों ने हिंदू मंदिरों पर हमला किया और तोड़फोड़ की। इस घटना के बाद सवाल उठता है कि क्या ये तोड़फोड़ करने की शिक्षा मस्जिद में दी गई थी ? वो भी जुम्मे की नमाज़ के वक्त? हर धर्म के लोग अपने धर्मस्थल में प्रार्थना करने के बाद करुणा और प्रेम का भाव लिए लौटते हैं, लेकिन कई बार देखा गया है कि मुस्लिम समुदाय जुम्मे की नमाज़ में इक्कट्ठा होने के बाद हिंसा करता है, फिर कारण चाहे जो भी हो, या कारण बना लिया जाए। 

ऐसे में सवाल उठता है और उठना चाहिए कि नमाज़ के दौरान उन्हें कौन भड़का देता है? क्या मौलवी-मौलाना के भाषण उन्हें हिंसा करने के लिए प्रेरित करते हैं, या फिर वे दूसरों के धर्मस्थलों को तोडना ही पुण्य का काम मानते हैं, इसलिए हमेशा मंदिर, चर्च, गुरूद्वारे पर हमले के लिए तैयार रहते हैं ? पाकिस्तान में कई गुरूद्वारे तोड़े गए हैं, तुर्की में चर्चों को मस्जिद बना दिया गया है,, और ये आज की बात नहीं, खुद पैगंबर मोहम्मद के समय काबा में 365 मूर्तियां हुआ करती थी, जिनकी वहां के लोग पूजा करते थे, उसे पैगंबर ने खुद तुड़वाया था, तो क्या आज मुस्लिम समुदाय जो कर रहा है, उसे उसी से प्रेरित माना जाए?  कि वे किसी दूसरे धर्म के व्यक्ति को अपने धर्म का पालन नहीं करने देना चाहते ? 

 

ऐसा ही बांग्लादेश में हुआ, जब चटगांव में जुमे की नमाज के बाद कट्टरपंथी मुसलमानों ने तीन हिंदू मंदिरों पर हमला किया। इन मंदिरों में शांतनेश्वरी मातृ मंदिर, शोनी मंदिर, और शांतनेश्वरी कालीबाड़ी मंदिर शामिल हैं। हमलावरों ने इन मंदिरों पर ईंट-पत्थर फेंके, जिससे मंदिरों के द्वार और अन्य हिस्सों को नुकसान पहुंचा। मंदिर प्रबंधन समिति के मुताबिक, हमलावरों की भीड़ ने इन मंदिरों को निशाना बनाया और हिंदू विरोधी नारे लगाए।

सवाल उठता है कि क्या मस्जिद में प्रार्थना के बाद एक भी मुस्लिम ऐसा नहीं था जो कट्टरपंथियों को रोकने की कोशिश करता। यदि हम मानते हैं कि हर धर्म में अच्छे लोग होते हैं, तो यह जरूरी है कि हम यह सवाल भी करें कि एक समुदाय के भीतर इतने बड़े पैमाने पर नफरत और हिंसा की प्रवृत्तियों को कैसे बढ़ावा दिया जा रहा है और उनके समुदाय से एक भी व्यक्ति इसके खिलाफ आवाज़ क्यों नहीं उठाता। क्या यह केवल कट्टरपंथियों का काम है, या फिर यह मजहब की मूल विचारधारा से प्रेरित हिंसा है, जो किसी समुदाय विशेष में समाहित हो गई है?

भारत में पाकिस्तान की मांग को लेकर जिन्ना ने 1946 में जो डायरेक्ट एक्शन डे किया था, यानी बंगाल में जो कत्लेआम कित्या था, वो भी जुम्मे की नमाज़ के बाद ही हुआ था, हाल ही में सम्भल हिंसा के बाद भी जुम्मे की नमाज़ के चलते सुरक्षा बेहद कड़ी कर दी गई थी, आखिर एक प्राथना से इतना डर क्यों पैदा हो गया है? कहीं न कहीं इसका इतिहास बुरा रहा है, वरना कुंभ में भी करोड़ों लोग आते हैं, स्नान करके लौट जाते हैं, किसी मस्जिद पर एक पत्थर नहीं चलता, तो फिर जुम्मे की नमाज़ के बाद ही हिंसा का चलन कहाँ से आया ?

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