सिद्धियों का दुरुपयोग न होना चाहिये
सिद्धियों का दुरुपयोग न होना चाहिये
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गायत्री साधना करने वालों को अनेक प्रकार की अलौकिक शक्तियों के आभास होते हैं। कारण यह है कि यह एक श्रेष्ठ साधना है। जो लाभ अन्य साधनाओं से होते हैं, जो सिद्धियाँ किसी अन्य योग से मिल सकती हैं, वे सभी गायत्री साधना से मिल सकती हैं। जब थोड़े दिनों श्रद्धा, विश्वास और विनयपूर्वक उपासना चलती है, तो आत्मशक्ति की मात्रा दिन- दिन बढ़ती रहती है, आत्मतेज प्रकाशित होने लगता है, अन्त:करण पर चढ़े हुए मैल छूटने लगते हैं, आन्तरिक निर्मलता की अभिवृद्धि होती है, फलस्वरूप आत्मा की मन्द ज्योति अपने असली रूप में प्रकट होने लगती है।

अङ्गीकार के ऊपर जब राख की मोटी परत जम जाती है तो वह दाहक शक्ति से रहित हो जाती है, उसे छूने से कोई विशेष अनुभव नहीं होता; पर जब उस अङ्गीकार पर से राख का पर्दा हटा दिया जाता है, तो धधकती हुई अग्रि प्रज्वलित हो जाती है। यही बात आत्मा के सम्बन्ध में है। आमतौर से मनुष्य मायाग्रस्त होते हैं, भौतिक जीवन की बहिर्मुखी वृत्तियों में उलझे रहते हैं। यह एक प्रकार से भस्म का पर्दा है, जिसके कारण आत्मतेज की उष्णता एवं रोशनी की झाँकी नहीं हो पाती। जब मनुष्य अपने को अन्तर्मुखी बनाता है, आत्मा की झाँकी करता है, साधना द्वारा अपने कषाय- कल्मषों को हटाकर निर्मलता प्राप्त करता है, तब उसको आत्मदर्शन की स्थिति प्राप्त होती है।

आत्मा, परमात्मा का अंश है। उसमें वे सब तत्त्व, गुण एवं बल मौजूद हैं, जो परमात्मा में होते हैं। अग्रि के सब गुण चिनगारी में उपस्थित हैं। यदि चिनगारी को अवसर मिले, तो वह दावानल का कार्य कर सकती है। आत्मा के ऊपर चढ़े हुए मलों का यदि निवारण हो जाए, तो वही परमात्मा का प्रत्यक्ष प्रतिबिम्ब दिखाई देगा और उसमें वे सब शक्तियाँ परिलक्षित होंगी जो परमात्मा के अंश में होनी चाहिये।

अष्ट सिद्धियाँ, नौ निधियाँ प्रसिद्ध हैं। उनके अतिरिक्त भी अगणित छोटी- बड़ी ऋद्धि- सिद्धियाँ होती हैं। वे साधना का परिपाक होने के साथ- साथ उठती, प्रकट होती और बढ़ती हैं। किसी विशेष सिद्धि की प्राप्ति के लिए चाहे भले ही प्रयत्न न किया जाए, पर युवावस्था आने पर जैसे यौवन के चिह्न अपने आप प्रस्फुटित हो जाते हैं, उसी प्रकार साधना के परिपाक के साथ- साथ सिद्धियाँ अपने आप आती- जाती हैं। गायत्री का साधक धीरे- धीरे सिद्धावस्था की ओर अग्रसर होता जाता है। उसमें अनेक अलौकिक सिद्धियाँ दिखाई पड़ती हैं। देखा गया है कि जो लोग श्रद्धा और निष्ठापूर्वक गायत्री साधना में दीर्घकाल तक तल्लीन रहे हैं, उनमें ये विशेषताएँ स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती हैं—

(१) उनका व्यक्तित्व आकर्षक, नेत्रों में चमक, वाणी में बल, चेहरे पर प्रतिभा, गम्भीरता तथा स्थिरता होती है, जिससे दूसरों पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। जो व्यक्ति उनके सम्पर्क में आ जाते हैं, वे उनसे काफी प्रभावित हो जाते हैं तथा उनकी इच्छानुसार आचरण करते हैं।
(२) साधक को अपने अन्दर एक दैवी तेज की उपस्थिति प्रतीत होती है। वह अनुभव करता है कि उसके अन्त:करण में कोई नई शक्ति काम कर रही है।
(३) बुरे कामों से उसकी रुचि हटती जाती है और भले कामों में मन लगता है। कोई बुराई बन पड़ती है, तो उसके लिए बड़ा खेद और पश्चात्ताप होता है। सुख के समय वैभव में अधिक आनन्द न होना और दु:ख, कठिनाई तथा आपत्ति में धैर्य खोकर किंकर्तव्यविमूढ़ न होना उनकी विशेषता होती है।
(४) भविष्य में जो घटनाएँ घटित होने वाली हैं, उनका आभास उनके मन में पहले से ही आने लगता है। आरम्भ में तो कुछ हलका- सा अन्दाज होता है, पर धीरे- धीरे उसे भविष्य का ज्ञान बिलकुल सही होने लगता है।
(५) उसके शाप और आशीर्वाद सफल होते हैं। यदि वह अन्तरात्मा से दु:खी होकर किसी को शाप देता है, तो उस व्यक्ति पर भारी विपत्तियाँ आती हैं और प्रसन्न होकर जिसे वह सच्चे अन्त:करण से आशीर्वाद देता है, उसका मङ्गल होता है; उसके आशीर्वाद विफल नहीं होते।
(६) वह दूसरों के मनोभावों को देखते ही पहचान लेता है। कोई व्यक्ति कितना ही छिपावे, उसके सामने यह भाव छिपते नहीं। वह किसी के भी गुण, दोषों, विचारों तथा आचरणों को पारदर्शी की तरह सूक्ष्म दृष्टि से देख सकता है।
(७) वह अपने विचारों को दूसरे के हृदय में प्रवेश करा सकता है। दूर रहने वाले मनुष्यों तक बिना तार या पत्र की सहायता के अपने सन्देश पहुँचा सकता है।
(८) जहाँ वह रहता है, उसके आस- पास का वातावरण बड़ा शान्त एवं सात्त्विक रहता है। उसके पास बैठने वालों को जब तक वे समीप रहते हैं, अपने अन्दर अद्भुत शान्ति, सात्त्विकता तथा पवित्रता अनुभव होती है।
(९) वह अपनी तपस्या, आयु या शक्ति का एक भाग किसी को दे सकता है और उसके द्वारा दूसरा व्यक्ति बिना प्रयास या स्वल्प प्रयास में ही अधिक लाभान्वित हो सकता है। ऐसे व्यक्ति दूसरों पर ‘शक्तिपात’ कर सकते हैं।

१०. उसे स्वप्न में, जाग्रत् अवस्था में, ध्यानावस्था में रंग- बिरंगे प्रकाश पुञ्ज, दिव्य ध्वनियाँ, दिव्य प्रकाश एवं दिव्य वाणियाँ सुनाई पड़ती हैं। कोई अलौकिक शक्ति उसके साथ बार- बार छेडख़ानी, खिलवाड़ करती हुई- सी दिखाई पड़ती है। उसे अनेकों प्रकार के ऐसे दिव्य अनुभव होते हैं, जो बिना अलौकिक शक्ति के प्रभाव के साधारणत: नहीं होते।

यह चिह्न तो प्रत्यक्ष प्रकट होते हैं, अप्रत्यक्ष रूप से अणिमा, लघिमा, महिमा आदि योगशास्त्रों में वर्णित अन्य सिद्धियों का भी आभास मिलता है। वह कभी- कभी ऐसे कार्य कर सकने में सफल होता है जो बड़े ही अद्भुत, अलौकिक और आश्चर्यजनक होते हैं।

सावधान रहें—जिस समय सिद्धियों का उत्पादन एवं विकास हो रहा हो, वह समय बड़ा ही नाजुक एवं बड़ी ही सावधानी का है। जब किशोर अवस्था का अन्त एवं नवयौवन का प्रारम्भ होता है, उस समय वीर्य का शरीर में नवीन उद्भव होता है। इस उद्भवकाल में मन बड़ा उत्साहित, काम- क्रीड़ा का इच्छुक एवं चंचल रहता है। यदि इस मनोदशा पर नियन्त्रण न किया जाए तो कच्चे वीर्य का अपव्यय होने लगता है, नवयुवक थोड़े ही समय में शक्तिहीन, वीर्यहीन, यौवनहीन होकर सदा के लिए निकम्मा बन जाता है। साधना में भी सिद्धि का प्रारम्भ ऐसी ही अवस्था है, जबकि साधक अपने अन्दर एक नवीन आत्मिक चेतना अनुभव करता है और उत्साहित होकर प्रदर्शन द्वारा दूसरों पर अपनी महत्ता की छाप बिठाना चाहता है। यह क्रम यदि चल पड़े तो वह कच्चा वीर्य- ‘प्रारम्भिक सिद्धि तत्त्व’ स्वल्प काल में ही अपव्यय होकर समाप्त हो जाता है और साधक को सदा के लिए छूँछ एवं निकम्मा हो जाना पड़ता है।

संसार में जो कार्यक्रम चल रहा है, वह कर्मफल के आधार पर चल रहा है। ईश्वरीय सुनिश्चित नियमों के आधार पर कर्म- बन्धन में बँधे हुए प्राणी अपना- अपना जीवन चलाते हैं। प्राणियों की सेवा का सच्चा मार्ग यह है कि उन्हें सत्कर्म में प्रवृत्त किया जाए, आपत्तियों को सहने का साहस दिया जाए; यह आत्मिक सहायता हुई।

तात्कालिक कठिनाई का हल करने वाली भौतिक सहायता देनी चाहिए। आत्मशक्ति खर्च करके कर्त्तव्यहीन व्यक्तियों को सम्पन्न बनाया जाए, तो वह उनको और अधिक निकम्मा बनाना होगा, इसलिए दूसरों को सेवा के लिए सद्गुण और विवेक दान देना ही श्रेष्ठ है। दान देना हो तो धन आदि जो हो, उसका दान करना चाहिए। दूसरों का वैभव बढ़ाने में आत्मशक्ति का सीधा प्रत्यावर्तन करना अपनी शक्तियों को समाप्त करना है। दूसरों को आश्चर्य में डालने या उन पर अपनी अलौकिक सिद्धि प्रकट करने जैसी तुच्छ बातों में कष्टसाध्य आत्मबल को व्यय करना ऐसा ही है, जैसे कोई मूर्ख होली खेलने का कौतुक करने के लिए अपना रक्त निकालकर उसे उलीचे; यह मूर्खता की हद है। जो अध्यात्मवादी दूरदर्शी होते हैं, वे सांसारिक मान- बड़ाई की रत्ती भर परवाह नहीं करते।

पर आजकल समाज में इसके विपरीत धारा ही बहती दिखाई पड़ती है। लोगों ने ईश्वर- उपासना, पूजा- पाठ, जप- तप को भी सांसारिक प्रलोभनों का साधन बना लिया है। वे जुआ, लाटरी आदि में सफलता प्राप्त करने के लिए भजन, जप करते हैं और देवताओं की मनौती करते हैं, उन्हें प्रसाद चढ़ाते हैं। उनका उद्देश्य किसी प्रकार धन प्राप्त करना होता है, चाहे वह चोरी- ठगी से और चाहे जप- तप भजन से। ऐसे लोगों को प्रथम तो उपासनाजनित शक्ति ही प्राप्त नहीं होती, और यदि किसी कारणवश थोड़ी- बहुत सफलता प्राप्त हो गई, तो वे उससे ही ऐसे फूल जाते हैं और तरह- तरह के अनुचित कार्यों में उसका इस प्रकार अपव्यय करने लगते हैं कि जो कुछ कमाई होती है, वह शीघ्र ही नष्ट हो जाती है और आगे के लिए रास्ता बन्द हो जाता है। दैवी शक्तियाँ कभी किसी अयोग्य व्यक्ति को ऐसी सामर्थ्य प्रदान नहीं कर सकतीं, जिससे वह दूसरों का अनिष्ट करने लग जाए।

तान्त्रिक पद्धति से किसी का मारण, मोहन, उच्चाटन वशीकरण करना, किसी के गुप्त आचरण या मनोभावों को जानकर उनको प्रकट कर देना और उसकी प्रतिष्ठा को घटाना आदि कार्य आध्यात्मिक साधकों के लिए सर्वथा निषिद्ध हैं। कोई ऐसा अद्भुत कार्य करके दिखाना जिससे लोग यह समझ लें कि यह सिद्ध पुरुष है, गायत्री- उपासकों के लिए कड़ाई के साथ वर्जित है। यदि वे इस चक्कर मंल पड़े, तो निश्चित रूप से कुछ ही दिनों में उनकी शक्ति का स्रोत सूख जाएगा और छूँछ बनकर अपनी कष्टसाध्य आध्यात्मिक कमाई से हाथ धो बैठेंगे। उनके लिए संसार का सद्ज्ञान दान कार्य ही इतना बड़ा एवं महत्त्वपूर्ण है कि उसी के द्वारा वे जनसाधारण के आन्तरिक, बाह्य और सामाजिक कष्टों को भली प्रकार दूर कर सकते हैं और स्वल्प साधनों से ही स्वर्गीय सुखों का आस्वादन कराते हुए लोगों के जीवन सफल बना सकते हैं। इस दिशा में कार्य करने से उनकी आध्यात्मिक शक्ति बढ़ती है। इसके प्रतिकूल वे यदि चमत्कार प्रदर्शन के चक्कर में पड़ेंगे, तो लोगों का क्षणिक कौतूहल अपने प्रति उनका आकर्षण थोड़े समय के लिए भले ही बढ़ा ले, पर वस्तुत: अपनी और दूसरों की इस प्रकार भारी कुसेवा होनी सम्भव है।

इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए हम इस पुस्तक के पाठकों और अनुयायियों को सावधान करते हैं, कड़े शब्दों में आदेश करते हैं कि वे अपनी सिद्धियों को गुप्त रखें, किसी के सामने प्रकट न करें। जो दैवी चमत्कार अपने को दृष्टिगोचर हों, उन्हें विश्वस्त अभिन्न मित्रों के अतिरिक्त और किसी से न कहें। आवश्यकता होने पर ऐसी घटनाओं के सम्बन्ध में शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार से भी परामर्श किया जा सकता है। गायत्री साधकों की यह जिम्मेदारी है कि वे प्राप्त शक्ति का रत्तीभर भी दुरुपयोग न करें। हम सावधान करते हैं कि कोई साधक इस मर्यादा का उल्लंघन न करे।

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