महारानी लक्ष्मी बाई : 1857 के ग़दर की वो तलवार, जिसके भय से कांपती रही ब्रिटिश सरकार
महारानी लक्ष्मी बाई : 1857 के ग़दर की वो तलवार, जिसके भय से कांपती रही ब्रिटिश सरकार
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सन 1858 में जून का 17वां दिन, जब झांसी की रानी, अपनी मातृभूमि के लिए जान देने से भी पीछे नहीं हटी। 'मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी'। अदम्य शौर्य के साथ बोला गया यह वाक्य बचपन से लेकर आज तक हमारे साथ है। उनका जन्म आज ही के दिन, 1828 को बनारस के एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्हें मणिकर्णिका नाम दिया गया और घर में मनु कहकर बुलाया जाने लगा। मनु 4 बरस की थीं, जब उनकी मां गुज़र गईं। पिता मोरोपंत तांबे बिठूर ज़िले के पेशवा के पास कार्य करते थे और पेशवा ने उन्हें अपनी बेटी की तरह पाला।

पेशवा ने मनु को प्यार से नाम दिया, छबीली। मणिकर्णिका का विवाह झांसी के महाराजा राजा गंगाधर राव नेवलकर से हुआ और देवी लक्ष्मी के नाम पर उनका नाम लक्ष्मीबाई पड़ा। दोनों के बेटे का जन्म दिया, किन्तु 4 माह का होते ही बच्चे का निधन हो गया। राजा गंगाधर ने अपने चचेरे भाई का बच्चा गोद लिया और उसका नाम दामोदार राव रखा। राजा का देहांत होते ही अंग्रेज़ों ने चाल चली और लॉर्ड डलहौज़ी ने ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ें जमाने के लिए झांसी की बदकिस्मती का फायदा उठाने का प्रयास किया।  अंग्रेज़ों ने दामोदर को झांसी के राजा का उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया। झांसी की रानी को वार्षिक 60000 रुपए पेंशन लेने और झांसी का किला खाली कर चले जाने को कहा गया।

लेकिन रानी ने अपनी झांसी देने से इंकार कर दिया, इस बीच कई बार रानी ने अंग्रेज़ों को मैदान-ए-जंग में भागने के लिए मजबूर कर दिया। इसी बीच एक बार अंग्रेज़ अफसर सर ह्यूज रोज़ की अगुवाई में अंग्रेज़ों ने रानी को चारों तरफ से घेर लिया और इस युद्ध में रानी बुरी तरह जख्मी हो गई, 18 जून 1858 को रानी का देहांत हो गया, लेकिन भारत के इतिहास में इस वीरांगना का नाम हमेशा अमर रहेगा।

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