आखिर कैसा देश है ये?
आखिर कैसा देश है ये?
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आखिर कैसा देश है ये? 


- कि राजधानी का कवि संसद की ओर पीठ किए बैठा है, 
सोती हुई अदालतों की आँख में कोंच देना चाहता है अपनी कलम।
गैरकानूनी घोषित होने से ठीक पहले असामाजिक हुआ कवि -
कविताओं को खँखार सा मुँह में छुपाए उतर जाता है राजमार्ग की सीढियाँ, 
कि सरकारी सड़कों पर थूकना मना है, 
कच्चे रास्तों पर तख्तियाँ नहीं होतीं।
पर साहित्यिक थूक से कच्ची, अनपढ़ गलियों को कोई फर्क नहीं पड़ता।
एक कवि के लिए गैरकानूनी होने से अधिक पीड़ादायक है गैरजरुरी होना। 

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