अगर ऐसा भी हो सकता - गुलज़ार
अगर ऐसा भी हो सकता - गुलज़ार
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अगर ऐसा भी हो सकता...

अगर ऐसा भी हो सकता---
तुम्हारी नींद में,सब ख़्वाब अपने मुंतकिल करके,
तुम्हें वो सब दिखा सकता,जो मैं ख्वाबो में 
             अक्सर देखा करता हूँ--!
ये हो सकता अगर मुमकिन--
तुम्हें मालूम हो जाता--
तुम्हें मैं ले गया था सरहदों के पार "दीना"१ में.
तुम्हें वो घर दिखया था,जहाँ पैदा हुआ था मैं,
जहाँ छत पर लगा सरियों का जंगला धूप से दिनभर
मेरे आंगन में सतरंजी बनाता था,मिटाता था--!
दिखायी थी तुम्हें वो खेतियाँ सरसों की "दीना"
      में कि जिसके पीले-पीले फूल तुमको 
              ख़ाब में कच्चे खिलाए थे.
वहीं इक रास्ता था,"टहलियों" का,जिस पे 
मीलों तक पड़ा करते थे झूले,सोंधे सावन के 
उसी की सोंधी खुश्बू से,महक उठती हैं आँखे 
जब कभी उस ख़्वाब से गुज़रूं!
तुम्हें'रोहतास'२ का 'चलता-कुआँ' भी तो
                     दिखाया था,
किले में बंद रहता था जो दिन भर,रात को 
         गाँव में आ जाता था,कहते हैं,
तुम्हें "काला"३ से "कालूवाल"४ तक ले कर 
                     उड़ा हूँ मैं 
तुम्हें "दरिया-ए-झेलम"पर अजब मंजर दिखाए थे 
जहाँ तरबूज़ पे लेटे हुये तैराक लड़के बहते रहते थे--
जहाँ तगड़े से इक सरदार की पगड़ी पकड़ कर मैं,
नहाता,डुबकियाँ लेता,मगर जब गोता आ 
        जाता तो मेरी नींद खुल जाती !!
मग़र ये सिर्फ़ ख्वाबों ही में मुमकिन है
वहाँ जाने में अब दुश्वारियां हैं कुछ सियासत की.
वतन अब भी वही है,पर नहीं है मुल्क अब मेरा
वहाँ जाना हो अब तो दो-दो सरकारों के 
                  दसियों दफ्तरों से
शक्ल पर लगवा के मोहरें ख़्वाब साबित 
                   करने पड़ते है. 

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