शहीद का दर्जा दिए जाने पर मौन RSS का अब राजगुरु पर दांव
शहीद का दर्जा दिए जाने पर मौन RSS का अब राजगुरु पर दांव
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लम्बे समय से आजादी की लड़ाई में 'खुद' की भूमिका से जूझ रहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अब इसका हल निकाल ही लिया है. आरएसएस ने देश के वीर शहीद क्रांतिकारी शिवराम हरि राजगुरु को आरएसएस का स्वयंसेवक बताया है. आरएसएस के पूर्व प्रचारक और पत्रकार ने अपनी एक किताब में राजगुरु के बारे में लिखा है कि महाराष्ट्र की एक शाखा में राजगुरु बतौर स्वयंसेवक कार्य करते थे. वहीं मोहन भागवत ने किताब की शुरुआत में ही भूमिका के तौर यह बताने कि कोशिश की है कि जो लोग स्वतंत्रता की लड़ाई में संघ की भूमिका पर सवाल उठाते है,उन्हें अब इसका जवाब मिल जाएगा.

आरएसएस के पूर्व प्रचारक और पत्रकार नरेंद्र सहगल की लिखी किताब भारतीय प्रतिनिधि सभा दौरान संघ की नागपुर शाखा में सभी के बीच बांटी गई. इस किताब का नाम ‘भारतवर्ष की सर्वांग स्वतंत्रता’ है जिसके पेज नंबर 147 में लिखा है , 'लाला लाजपत राय की शहादत का बदला लेने के लिए सरदार भगत सिंह और राजगुरु ने अंग्रेज अफसर सांडर्स को लाहौर की माल रोड़ पर गोलियों से उड़ा दिया. फिर दोनों लाहौर से निकल गए. राजगुरु नागपुर आकर डॉ. हेडगेवार से मिले. राजगुरु संघ के स्वयंसेवक थे. हेडगेवार ने अपने सहयोगी कार्यकर्ता भैयाजी दाणी के फार्म हाउस में राजगुरु के ठहरने और खाने-पीने की व्यवस्था की थी.'

इस किताब में संघ ने खुले तौर पर यह बताने की कोशिश की है कि 23 मार्च को भगतसिंह और सुखदेव के साथ फांसी पर चढ़ने वाले राजगुरु आरएसएस के स्वयंसेवक थे, राजगुरु ने लाला लाजपत राय की मौत के बाद अंग्रेजों से बदला लेने के लिए सांडर्स की हत्या कर दी थी. भगत सिंह के घनिष्ठ कहे जाने वाले राजगुरु को संघ ने अब आरएसएस के प्रचारक हेडगेवार का घनिष्ठ बताया है.  जबकि इस बारे में पुख्ता सबूत है कि राजगुरु चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह और अन्य क्रांतिकारियों के बनाये हुए संगठन  हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का हिस्सा थे.

हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की विचारधारा यह कहती है कि वो कभी भी ऐसे देश का सपना नहीं देखते जो देश धर्म प्रधान हो, देश में सभी को सामान अधिकार है चाहे वो किसी भी धर्म का हो, यही कारण था कि चंद्रशेखर आजाद, पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के साथ आजादी के लिए की जाने वाली गतिविधियों में अशफाक उल्ला खां भी शामिल थे, वहीं दूसरी ओर 27 सितम्बर 1925 को बने आरएसएस में हेडगेवार, वीर सावरकर बतौर प्रचारक काम कर रहे जो देश में एक आजादी के बाद  सिर्फ एक धर्म को तवज्जों देकर लोगों को दूसरी दिशा में काम कर रहे थे. इस हिसाब से देखा जाए तो यहाँ कोई तर्क नहीं बनते कि राजगुरु संघ के प्रचारक या स्वयंसेवक थे. नरेंद्र सहगल ने अपने दावों में यह भी कहा कि आरएसएस की पुरानी किताबों में इसका जिक्र है.


जानकारों के अनुसार: 

इस बारे में, इतिहासकार आदित्य मुखर्जी इसे सिरे से नकार कर कहते है कि,संघ ने इस तरह किसी बड़े आइकॉन को अपने साथ जोड़ने की यह घटिया कोशिश की है, लेकिन संघ पहले भी बाबा साहब अंबेडकर, स्वामी विवेकानंद और बाल गंगाधर तिलक के साथ ऐसा कर चूका है. जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और ‘भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज’ किताब को एडिट करने वाले चमन लाल ने भी संघ के इन दावों को सिरे से ख़ारिज कर दिया है. 

'भगत सिंह के जेल नोट्स' को किताब की शक्ल देने वाले और वर्तमान में क्रांतिकारियों के परिवार के करीबी इंदौर के राहुल इंकलाब का इस बारे में कहना है कि "इतिहास में इस तरह के तथ्य जरूर है कि राजगुरु, हेडगेवार और वीर सावरकर से मिलते थे लेकिन राजगुरु किसी भी तरह से संघ के स्वयंसेवक नहीं थे, इस बारे में कभी भी किसी क्रांतिकारी ने अपने लेखों में या और कहीं भी इसका कोई जिक्र नहीं किया.'

लम्बे समय से संघ इस तरह की कोशिश करते आया है, लेकिन वो कभी भी नाकाम नहीं रहा है. अपनी तर्कहीन बातों को युवाओं तक पहुंचाने के बाद इतिहास को बदलने मंसूबे कभी कामयाब नहीं होते. साथ ही संघ को ये सोच लेना चाहिए कि आज का युवा धीरे-धीरे ही सही लेकिन जाग रहा है, संघ की ऐसी सोच के बाद आज शहीद राजगुरु, भगत सिंह, सुखदेव होते तो अपने उसी पुराने अंदाज में ठहाका लगाकर हंस रहे होते. 

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